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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । एकादश अंग - विपाक श्रत में सम्बर-जन्य शुभ तथा श्राश्रव-जन्य अशुभ कर्मों के विपाक - फल का वर्णन मिलता है । इस प्रकार इन दोनों में पारस्परिक सम्बंध रहा हुआ है । ५ प्रस्तुत सूत्र - " विपाक श्रुत" में आचार्य अभयदेव सूरि ने "तेणं कालेां तेणं सम" का " तस्मिन् काले तस्मिन समये" जो सप्तम्यन्त अनुवाद किया है वह दोपावायक नहीं है कारण कि अर्द्धमागधी भाषा में पती के स्थान पर तृतीया का प्रयोग भो देखा जाता है। किसी किसी आचार्य का मत है कि यहां 'ं” वाक्यालंकारार्थक है और "ते" प्रथमा का बहुवचन है जो कि यहां पर किरण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु दोनों विचारों में से ग्राद्य विचार का हो बहुत से आवार्य समर्थन करते हैं। आचार्य प्रवर श्री हेमचन्द्र जो के शब्दानुशासन में भी मतमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है, यथा सप्तम्यां द्वितीया [ ८ ३ १३७ ] सतम्या: स्थाने द्वितीया भवति विज्जुज्जोय' भर रत्ति । तृतीयापि दृश्यते । तें कालेणं तेणं समएं - तमिन् काले तस्मिन् समये इत्यर्थः । जैन सिद्वान्तकौमुदी (अर्द्धमागधि व्याकरण) में शतावधान पंडित रत्नचन्द्र जी म ने सप्तमी के स्थान पर तृतीया का विधान किया है वे लिखते हैं आधारेऽपि । २ । २ । १९ क्वचिदधिकरणेऽपि वाच्ये तृतीया स्यात् । " तेां कालेतेां समर" जेणामेव सेगिए राया तेणामेव उवागन्छन् - यस्मिन्नेव श्रेणिको राजा तस्मिन्नेव उपा गच्छतीत्यर्थः । इत्यादि उदाहरणों तथा व्याकरण के नियमों से यह स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति का प्रयोग शास्त्र सम्मत ही है । "ते" कालेां तेां सम" इस पाठ में काल और समय शब्द का पृथक पृथक प्रयोग किया गया है जब कि काल और समय यह दोनों समानार्थक हैं, व्यवहार में भी काल तथा समय या सुकुमारियें, प्रभव चोर उसके ५ सौ साथी एवं अन्य अनेकों धर्म-प्रिय नर-नारी, जम्बूकुमार के नेतृत्व में आर्य- - प्रवर श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज की शरण में उपस्थित होते हैं और उनमे संयम के साधना क्रम को जान कर तथा अपने समस्त हानि लाभ को विचार कर अंत में श्री सुधर्मा स्वामी से दीक्षा-व्रत स्वीकार कर लेते हैं और अपने को मोक्ष पथ के पथिक बना लेते हैं। मूलसूत्र में जिस जम्बू का वर्णन है. ये हमारे यही जम्बू हैं जो आठ पलियों को एक अरब ९५ करोड मोहरी - स्वगमुद्राओं की सम्पत्ति को तिनके की भांति त्याग कर साधु बने थे और जिन्हो ने उग्रसाधना के प्रताप से कैवल्य को प्राप्त किया था । आज का निग्रंथ प्रवचन इन्हीं के प्रश्नों और श्री सुधर्मा स्वामी के उत्तरों में उपलब्ध होरहा है । महामहिम श्री जम्बू स्वामो ही इस असी काल के अन्तिम केवली एवं सर्वदर्शी थे । इनका गुणानुवाद जितना भी किया जाए उतना ही कम है, तभी तो कहा है- “यति न जम्बू सारिखा" । For Private And Personal 6 (१) “कालेणं” कलयति मासोऽयं सम्वत्सरोऽयं इत्यादि रूपेण निश्चन्वंति तत्त्वज्ञा यमिति कलनं - संख्यानं पाक्षिकोऽयं मासिकोऽयमित्यादिरूपेण निरूपणं कालः सोऽस्मिन्नस्तीति । कालानां समयादीनां समूह इति । कालः । वस्तुतस्तु 'वट्टणाल म्खणो कालो" इति भगवद्-वचनात् कलयति नवजीर्णादि-रूपतया प्रवर्तयति वस्तु-पर्यायमिति काल तस्मिन् । तस्मिन् हीयमानलक्षणे समये – सम- सम्यक् प्रयते गच्छतीति समयोऽवसरस्तमिन् ।
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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