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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [७०१ मुना है वैसा ही तुम्हें सुनाया है । इस में मेरी ओर से अपनी कोई कल्पना नहीं की गई है। -पाणिग्गहण जाव पुव्वभवे--यहां पठित जाव-यावत् पद---श्रीभद्रनन्दी का श्री सुबाहुकुमार की भाँति अपने महलों में अपनी विवाहित स्त्रियों के साथ सांसा रक कामभागों का उपभोग करते हुए विहरण करना, भगवान् महावीर स्वामी का वहां आना, राजा, भद्र नन्दी तथा नगर की जनता का प्रभुचरणों में उपस्थित होना तथा उपदेश सुन कर वापिस अपने २ स्थान को चले जाना । तदनन्तर भद्रनन्दी का साधुवृत्ति के लिये अपने को अशक्त बता कर भगवान् से श्रावकधर्म अंगीकार करना और वहां से उठ कर वापस अपने महलों में चले जाना इत्यादि भावों का तथा-पडि नाभिते जाव सिद्धे--यहां पटित जाव--यावत् पद-धमेघोष गाथापति का संसार को परिमित करने के साथ २ मनुष्यायु का बान्धना, आयुपूर्ण होने पर महाराज अर्जुन के घर भद्रनन्दी के रूप में उत्पन्न होना । गौतम स्वामी का--भगवन् ! क्या भद्र नन्दी आपश्री के चरणों में दीक्षित होगा', यह प्रश्न करना, भगवान का-हां में उत्तर देना । तदनन्तर भगवान् का विहार कर जाना, भद्रनन्दी का तेलापौषध करना, उस में भगवान के पास दीक्षित होने का निश्चय करना । भगवान् का फिर पधारना, भगवान् का धर्मोपदेश देना, उपदेश सुन कर भद्रनन्दी का माता पिता से आज्ञा लेकर साधुधर्म को अगीकार करना और उस साधना द्वारा केवल ज्ञान की प्राप्ति करना-आदि भावों का परिचायक है। सुबाहुकमार और भद्रनन्दी जी के जीवनवृत्तान्त में इतना ही अन्तर है कि भी सुबाहुकुमार जी देवलोक श्रादि के अनेकों भव करने के अनन्तर मुक्ति में जायेंगे जब कि श्री भद्रनन्दी इसी भव में मुक्ति में पहुंच जाते हैं। ॥ अष्टम अध्याय समाप्त ।। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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