SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 768
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६९८1 ओविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय मरण आदि के दुःखों का अन्त करेगा। दूसरे शब्दों में कहे तो सुबाहुकुमार का जीव अपने पुनीत आचरणों से जन्म तथा मरण रूप भवपरम्परा का उच्छेद कर डालेगा और वह सदा के लिये इस से मुक्त हो जाएगा तथा आत्मा की स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त कर लेगा जो कि अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीय - शक्ति रूप है-यह कह सकते हैं । सुपात्र दान की महानता और पावनता सुबाहुकुमार के सम्पूर्ण जीवन मे स्पष्ट सिद्ध हो जाती है। समाव गाथापति के भव में उस ने सुपात्र में भिक्षा डाली थी, उसी का यह महान् फल है कि आज वह परम्परा सोमबका अाराध्य बन गया है। इस जीवन से भावना की मौलिकता भी विस्पष्ट हो जाती है। किसी भी कार्य में सफलता तभी प्राप्त होती है यदि उस में विशुद्ध भावना को उचित स्थान प्राप्त हो । जब तक भावगत दूषण दर नहीं होता तब तक अात्मा आनन्दरूप भूषण को हस्तगत नहीं कर सकता । अतः श्री सुबाहुकुमार के जीवन को आचरित करके मोक्षाभिलाषियों को मोक्ष में उपलब्ध होने वाले सुख को प्राप्त करने का यत्न करना चाहिये । यही इस कथासंदर्भ से ग्रहणीय सार है। इस प्रकार सुबाहुकुमार के जीवनवृत्तान्त को सुनाने के बाद आर्य सुधर्मा स्वामी बोले कि हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्बू ! प्रभु वीर के पावन चरणों में रह कर जैसा मैंने सुना था वैसा ही तुम्हें सुना दिया, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। इस के मूलस्रोत तो परम आराध्य मंगलमूर्ति भगवान् महावीर स्वामी ही हैं। आर्य सुधर्मा स्वामी के इस कथन में प्रस्तुत अध्ययन की प्रामाणिकता सिद्ध की गई है । सर्वज्ञभाषित होने से उस का प्रामाण्य सुस्पष्ट है। -समणेणं जाव संपत्तेणं - यहां पर उल्लेख किये गये जाव-यावत् पद से अभिमत पदों का वर्णन ५४३ से ले कर ५४८ तक के पृष्ठों पर कर दिया गया है । सुखप्राप्ति के लिये कहीं इधर उधर भटकने की आवश्यकता नहीं है । उस की उपलब्धि अपने ही ओर देखने से, अपने में हो लीन होने से होती है । बाह्य पदार्थ सुख के कारण नहीं बन सकते, उन में जो सुख मिलता है, वह सुख नहीं, सुखाभास है, सुख की भ्रान्त कल्पना है । मधुलिप्त असिधारा ( शहद से लिपटी हुई तलवार की धारा) को चाटने से क्षणिक सुख का आभास जरूर होता है किन्तु उस का परिणाम सखावह नहीं होता है । मधुर रस के आस्वादन के साथ २ जिह्वा का भेदन भी होता चला जाता है । यही बात संसार की समस्त सुखजनक सामग्री की है । जब सख के साधन अचिरस्थायी और विनश्वर हैं तो उन से प्राप्त होने वाला सुख स्थायी कैसे हो सकता है ? इस के अतिरिक्त ज्ञानी पुरुषों का यह कथन सोलह आने सत्य है कि संसारवर्ती राजघाट, महल अटारी, गाड़ी घोड़ा, वस्त्राभूषण, और भोजनादि जितने भी पदार्थ हैं, उन में अनुराग या आसक्ति ही स्थायी दुःख का कारण है । इन से विरक्त हो कर अात्मानुराग ही वास्तविक सुख का यथार्थ साधन है । मानव प्राणो इन बाह्य पदार्थों से जितना भी विमुख होगा, जितना भी मोह कम करेगा, उतना ही वास्तविक सुख की उपलब्धि में अग्रेसर होगा और आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त करता चला जारगा। सांसारिक पदार्थों के संसर्ग में रागद्वेषजन्य व्याकुलता का अस्तित्व अनिवार्य है और जहां व्याकुलता है, वहां कभी सुख का क्षणिक अाभास भले हो परन्तु सुख नहीं है, निराकुलता नहीं है । इस लिये स्थायी सुख या निराकुलता प्राप्त करने के लिये सांसारिक पदार्थों के संसर्ग अर्थात् इन पर से अनुराग का त्याग करना परम आवश्यक है। बस यही प्रस्तुत अध्ययन गत सुबाहुकुमार के कथासन्दर्भ का रहस्यमूलक ग्रहणीय सार है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy