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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६७३ को देने वाले अन्य जीवनों का संकलन सर्ववाचनात्रों में मिलता था । सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू स्वामी को लक्ष्य बना कर अपनी इस वाचना में स्कन्दक के जीवन से ही उस अर्थ की प्ररूपणा कर डाली, जो अर्थ अन्य वाचनाओं में गर्भित था। अतः यह स्पष्ट है कि स्कन्दक ने जो अगादि शास्त्र पढ़े थे की वाचना में नहीं थे । अथवा दूसरी बात यह भी हो सकती है कि श्री गणधर महाराज अतिशय अर्थात् ज्ञानविशेष के धारक होते थे । इसलिये उन्हों ने अनागत काल में होने वाले चरित्रों का संकलन कर दिया । इस के अतिरिक्त अनागत शिष्यवर्ग की अपेक्षा से अतीत काल का निर्देश भी दोषावह नहीं है । दीक्षा के अनन्तर सुबाहुकुमार को तथारूप स्थविरों के पास शास्त्राध्ययनार्थ छोड़ दिया गया और श्री सुबाहुकमार मुनि ने भी अपनी विनय तथा सुशीलता से शीघ्र ही आगमों के अध्ययन में सफलता प्राप्त कर ली, पर्याप्त ज्ञानाभ्यास कर लिया। ज्ञानाभ्यास के पश्चात् सुबाहुकुमार ने तपस्या का प्रारम्भ किया। उस में वे व्रत, बेला, तेला आदि का अनुष्ठान करने लगे। अधिक क्या कहें-मुवाहमुनि ने अपने जीवन को तपोमथ ही बना डाला । आत्मशुद्धि के लिये तपश्चर्या एक आवश्यक साधन है। तप एक अमि है कि जो आत्मा के कषायमल को भस्मसात् कर देने की शक्ति रखती है। "-तपसा शुद्धिमाप्नोति-"। अन्त में एक मास की संलेखना -२९ दिन का संथारा करके आलोचना तथा प्रतिक्रमण करने के अनन्तर समाधिपूर्वक श्री सुबाहु मु ने इस औदारिक शरीर को त्याग कर देवलोक में पधार गये । दूसरे शब्दों में श्री सुबाहुकुमार पर्याप्तरूप से साधुवृत्ति का पालन कर परलोक के यात्री बने और देवलोक में जा विराजे। -चउत्थ० तवोविहाणेहि -- यहां दिए गए बिन्दु से-उमदसमवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं-इस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण करना चाहिये । इस का अर्थ यह है कि व्रत, बेले, तेले, चौले और पंचौले के तप से तथा १५ दिन, एक महीने की तपस्या से एवं और अनेक प्रकार के तपोमय अनुष्ठानों से। चतुर्थभक्त-इस पद के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं जैसे कि -१-उपवास, २-जिस दिन उपवास करना हो उस के पहले दिन एक समय खाना और उपवास के दूसरे दिन भी एक समय खाना । इस प्रकार ये दो भक्त-भोजन हुए। दो भक्त उपवास के और दो आगे पीछे के । इस प्रकार दो दिनों के भक्त मिला कर चार भक्त होते हैं । इन चार भक्तों ( भोजनों ) का त्याग चतुर्थभक्त कहलाता है । आजकल इस का प्रयोग दो वक्त आहार छोड़ने में होता है जो कि व्रा के नाम से प्रसिद्ध है । पूर्व संचित कर्मों के नाश करने वाले अनुष्ठानविशेष की 'तप संज्ञा है, उस का विधान तपोविधान कहलाता है । श्रामण्य साधुता का नाम है। पर्याय भाव को कहते हैं । श्रामण्यपर्याय का अर्थ होता है - साधुभाव - साधुवृत्ति । सलेखना-जिस तप के द्वारा शरीर और क्रोध, मान, माया ओर लोभ इन कषायों को कृशनिर्बल किया जाता है उस तर के अनुष्ठान को २संलेखना कहते हैं। ___ -अप्पाणं असित्ता - आत्मानं जोपयित्वा-यहां झूसित्ता का प्रयोग -पाराधित कर केइस अर्थ में किया गया है । संलेखना से आराधित करने का अर्थ है -संलेखना द्वारा अपने को मोक्षमार्ग के अनुकूल बनाना । महीने की संलेखना के स्पष्टीकरणार्थ ही मूल में-सहि भत्ता-पष्टिं भक्तानि-इस का उल्लेख किया गया है । अर्थात् महीने की संलेखना का अर्थ है-साठ भक्तों - भोजनों का परित्याग । प्रश्न-सूत्रकार ने-मासियाए संलेहणाए-का उल्लेख करने के बाद -सटिं भत्ताई-इस (१) तवेणं भंते ! जोवे किं जणयः । तवेणं जोवे वोदाण जणयइ ।। २७ । (उत्तरा० अ० २९) (२) संलिख्यते कशी क्रियते शरीरकषायादिकमनयेति संलेखनेति भावः । (वृत्तिकार:) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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