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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६७२] श्रीविपकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय पठमीय, स्मरणीय और आचरणीय है। अतः उस के उल्लेख की तो आवश्यकता ही नहीं रहती। उस का अध्ययन तो सुबाहुकुमार के लिये अनिवार्य होने से बिना उल्लेख के ही उल्लिखित हो ही जाता है। प्रश्न - ग्यारह अंगों में विपाक श्रत का भी निर्देश किया गया है, उस के द्वितीय श्रतस्कंध के प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार का जीवनचरित्त वर्णित है । तो क्या वह सुबाहुकमार यही था या अन्य ? यदि यही था तो उस ने विपाकसूत्र पढ़ा, इस का क्या अर्थ हुआ ? जिस का निर्माण बाद में हुअा हो उस का अध्ययन कैसे संभव हो सकता है? उत्तर-विपाकसूत्र के द्वितीय श्रतस्कंध के प्रथम अध्ययन में जिस सुबाहुकुमार का वृत्तान्त वर्णित है, वह हमारे यही हस्तिशीर्षनरेश महाराज अदीनशत्रु के परमसुशील पुत्र सुबाहुकमार हैं । अब रही बात पढ़ने की, सो इस का समाधान यह है कि भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर थे, जो कि अनुपम ज्ञानादि गुणसमूह के धारक थे । उन की नौ वाचनायें (अागमसमुदाय) थीं जो कि इन्हीं पूर्वोक्त अंगों, उपांगों आदि के नाम से प्रसिद्ध थीं । प्रत्येक में विषय भिन्न २ होता था और उन का अध्ययनक्रम भी विभिन्न होता था। वर्तमान काल में जो वाचना उपलब्ध हो रही है वह भगवान् महावीर स्वामी के पट्टधर परमश्रद्धेय श्री सुधर्मा स्वामी की है। ऊपर जो अंगों का वर्णन किया गया है वह इसी से सम्बन्ध रखता है। सुधर्मा स्वामी की वाचनागत विभिन्नता सुबाहुकुमार के जीवन वृत्तान्त से स्पष्ट हो जाती है। तथा सुबाहुकमार के जीवन से यह भी स्पष्ट होता है कि सुबाहु कुमार का अध्ययन किसी अन्य गणधर की देख रेख में निष्पन्न हुआ और उस ने उस की वाचना के हो एकादश अंग पढ़े, उन का अर्थ सुधर्मा स्वामी की वाचना से भिन्न था । अतः सुबाहु. कमार ने जो विपाक पढ़ा वह भी अन्य था जोकि आज दुर्भाग्यवश अनुपलब्ध है। ___ श्राचार्य प्रवर अभयदेवसूरि ने भगवतीसूत्र की व्याख्या में स्कन्दककुमार के विषय से सम्बन्ध रखने वाले विचारों का जो प्रदर्शन किया है वह मननीय एवं प्रकृत में उपयोगी होने से नीचे दिया जाता है नन्वनेन स्कन्दकचरितात् प्रागेवैकादशांगनिष्पत्तिरवसीयते पंचमांगान्तभूतं च स्कन्दकचरितमुपलभ्यते, इति कथं न विरोधः १ उच्यते-श्रीमन्महावीरतीयें किल नव वाचना, तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्दकचरितात् पूर्वकाले ये स्कन्दकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते । स्कन्दकवरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं स्वशिष्यम्गीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्दकचरितमेवाश्रित्य तदर्थ प्ररूपणा कृतेति न विरोधः । अथवा सातिशायित्वाद गणधराणामनागतकालभाविचरितनिवन्धनमदुष्टमिति, भाविशिष्यसन्तानापेक्षया, अतीतकालनिर्देषोऽपि न दुष्ट इति । (भगवती सूत्र शतक २, उद्दे० १, सू० ९३) अर्थात् – प्रस्तुत में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि स्कन्दक चरित से पहले ही एकादश अंगों का निर्माण हो चुका था। स्कन्दकचरित्र पंचम अंग (भगवती सूत्र) में संकलित किया गया है । तब स्कन्दक ने ११ अंग पड़े, इस का क्या अर्थ हुअा ? क्या उस ने अपना ही जीवन पढ़ा ? इस का उत्तर निम्नोक्त है भगवान् महावीर के तीर्थ-शासन में नौ वाचनाएं थों। प्रत्येक वाचना में स्कन्दक के जीवन का अभिधेयअर्थ (शिक्षारूप प्रयोजन) समान रूप से अवस्थित रहता था । अन्तर इतना होता था कि जीवन के नायक तथा नायक के साथी भिन्न होते थे । सारांश यह है कि जो शिक्षा स्कन्दक के जीवन में मिलती थी, उसी शिक्षा (१) अाज भी देखते हैं कि सब प्रान्तों में शास्त्री या बीए पाद परीक्षाएं नाम से तो समान हैं परन्तु उस की अध्ययनोय पुस्तके विभिन्न होती हैं एवं पुस्तकगत विषय भी पृथक् पृथक होते हैं। यह क्रम प्राचीनता का प्रतीक है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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