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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (६०) श्री विपाक सुत्र [प्राक्कथन है, परन्तु जहां निर्माता स्वयं इष्टदेव हो वहां अन्य मंगल की क्या आवश्यकता है ? प्रश्न यह ठीक है कि मूलप्रणेता श्री अरिहन्त भगवान को मंगलाचरण की कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु गणधरों को तो अपने इष्टदेव का स्मरणरूप मंगल अवश्य करना ही चाहिए था ? उत्तर-यह शंका भो निमूल है । कारण कि गणधरों ने तो मात्र श्री अरिहन्त देव द्वारा प्रीतपादित अर्थरूप आगम का सूत्ररूप में अनुवाद किया है। उन की दृष्टि में तो वह स्वयं ही मंगल है। तब एक मंगल के होते अन्य मंगल का प्रयोजन कुछ नहीं रहता, अतः श्री विपाकश्रुत में मंगलाचरण नहीं किया गया । प्रस्तुत टीका के लिखने का प्रयोजन यद्यपि विपाकश्रुत के संस्कृत, हिन्दी, गुजराती और इंगलिश आदि भाषाओं में बहुत से अनुवाद भी मुद्रित हो चुके हैं, परन्तु हिन्दीभाषाभाषी संसार के लिए हिन्दी भाषा में एक ऐसे अनुवाद की आवश्यकता थी जिस में मूल, छाया, पदार्थ और मूलार्थ के साथ में विस्तृत विवेचन भी हो । जिन दिनों मेरे परमपूज्य गुरुदेव प्रधानाचार्य श्री १००८ श्री आत्मा राम जी महाराज श्रीस्थानांग सूत्र का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे, उन दिनों मैं आचार्य श्री के चरणों में श्री विपाकश्रुत का अध्ययन कर रहा था। विपाकश्रुत की विषयप्रणाली का विचार करते हुए मेरे हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या ही अच्छा हो कि यदि पूज्य श्री के द्वारा अनुवादित श्री उत्तराध्ययन और दशाश्रुतस्कन्ध आदि सूत्रों की भाँति विपाकश्रुत का भी हिन्दी में अनुवाद किया जाए । आचार्य श्री को इस के लिये प्रार्थना की गई परन्तु स्थानांगादि के अनुवाद में संलग्न होने के कारण आपने अपनी विवशता प्रकट करते हुए इस के अनुवाद के लिए मुझे ही आज्ञा दे डाली। सामर्थ्य न होते हुए भी मैंने मस्तक नत किया और उन्हीं के चरणों का आश्रय लेकर स्वयं हो इस के अनुवाद में प्रवृत्त होने का निश्चय किया । तदनुसार इस शुभ कार्य को प्रारम्भ कर दिया । प्रस्तुत विवरण लिखने में मुझे कितनी सफलता मिली है ? इसका निर्णय तो विज्ञ पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। मैं तो इस विषय में केवल इतना ही कह सकता हूं कि यह मेरा प्राथमिक प्रयास है, तथा मेरा ज्ञान भी स्वल्प है, अतः इस में सिद्धान्तगत त्रुटियों का होना भी संभव है और भावगत विषमता भी असम्भव नहीं है। अन्त में इस ज्ञानसाध्य विशाल कार्य और अपनी स्वल्प मेधा का का विचार करते हुए अपने सहृदय पाठकों से आचार्य श्री हेमचन्द्र की जी सूक्ति में विनम्र निवेदन करने के अतिरिक्त और कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हूं: क्वाहं पशोरिप पशुः, वीतरागस्तवः क्व च । उत्तत्तीषु ररण्यानि, पद्भ्यां पंगुरिवारम्यतः ॥७॥ तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि । विशृखलापि वाग्वृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते ॥८॥ (वीतराग स्तोत्र) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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