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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। मुनि आदाता - ग्राहक हैं, ये तीनों ही शद्ध थे । अर्थात् दाता की भावना ऊंची थी, देय वस्तु -- आहारादि प्रासक-निर्दोष थी और ग्राहक सर्वोत्तम था। इसलिये दान भी सर्व प्रकार से फलदायक सम्पन्न हुआ । -तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स यहां तृतीया के स्थान में -हैमशब्दानुशासन शब्दशास्त्र के - कचिद् द्वितीयादेः । ८ -३ - १३४ । इस सूत्र ' से षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। -तिविहेणं-तिकरणसुद्धणं -(तीन प्रकार की करणशुद्धि से ) इन पदों का भावार्थ है कि जिस समय सुमुख गृहपति आहार दे रहा था, उस समय उस के तीनों करण-मन, वचन और काया शुद्ध थे। आहार देते समय सुमुख गृहपति की मनोवृत्ति, वाणी का व्यापार, शारीरिक चेष्टा, ये तीनों ही संयत, प्रशस्त अथ च निदोष थीं। -परित्तोकते-इस का भावार्थ है - सुमुख गृहपति ने उक्त सुपात्रदान से संसार --जन्ममरणरूप परम्परा को परिमित -स्वल कर दिया। इस के अतिरिक्त जैनपरिभाषा के अनुसार "परित्तसंसारी" उसे कहते हैं, जिस का जघन्य (कम से कम) काल अन्तर्मुहूत हो और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) काल देशोनथोड़ा सा कम, अर्धपुद्ग नपरावर्तन हो । अर्थात् जिम का जन्ममरणरूप संसार कम से कम 'अन्तर्मुहूर्त का, अधिक से अधिक देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तन तक रह जावे उसे परित्तसंसारी-परिमित संसार वाला कहते हैं । संसार अपरिमित है । उस की कोई इयत्ता नहीं है। यह प्रवाह से अनादि अनन्त है । इस अपरिमित जन्ममरणपरम्परा को अपने लिए परिमित कर देना किसी विशिष्ट आत्मा को ही आभारी होता है । परिमित संसारी का मोक्षगमन सुनिश्चित हो जाता है, इसलिये यह बड़े महत्त्व की वस्तु है। दिव्य का अर्थ है - देवसन्बन्धी या देवकृत । वसु का अर्थ है - सुवर्ण । उस की वृष्टि धारा कहलाती है। वास्तव में देवकृत सुवर्णवृष्टि को ही वसुधारा कहते हैं। कृष्ण. नील, पीत, श्वेत और रक्त ये पांच रंग पुष्पों में पाए जाते हैं । देवों से गिराए गए पुष्प वैकियलब्धिजन्य होते हैं । अतएव ये अचित्त होते हैं । यही इन की विशेषता है । चेलोत्क्षेप-चेल नाम वस्त्र का है, उस का उत्क्षेप - फेंकना चेलोत्क्षेप कहलाता है। आश्चर्य उत्पन्न करने वाले दान की अहोदान संज्ञा है। सुवर्ण वृष्टि, पुष्पवर्षण और चेलोत्क्षेप एवं दुन्दुभिनाद, ये सब ही आश्चर्योत्पादक हैं । इसलिये जिस दान के प्रभाव से ये प्रकट हुए हैं उसे अहोदान शब्द से व्यक्त करना नितरां समीचीन है । -सिंघाडग० जाव पहेसु-यहां पठित-जाव-यावत्-पद से --तियचउक्कचच्चरमहापह-इन पदों का ग्रहण होता है । त्रिकोण मार्ग की गाटक संज्ञा है। जहां तीन रास्ते मिलते हो उसे त्रिक कहते हैं । चार रास्तों के सम्मिलित स्थान की चतुष्क -चौक संज्ञा है । जहां चार से भी अधिक रास्ते हों वह चत्वर कहलाता है । जहां बहुत से मनुष्यों का यातायात हो वह महापथ और सामान्यमार्ग की (१) द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठी भवति क्वचित् । सीमाधरस्स वन्दे । तिस्ता मुहस्स भरिमा । अत्र द्वितीया याः षष्ठो । धणस्त लहो- धनेन लब्ध इत्यर्थः । चिरेण...(वृत्तिकार:) (२) एक जीव जितने समय में लोक के समस्त पुद्गलों को औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण इन शरीरों के रूप से तथा मन, वचन और काय के रूप से ग्रहण कर परिणमित कर ले अर्थात् लोक के सब पुद्गलों को औदारिक शरीर के रूप में, फिर वैक्रिय, फिर तेजस, फिर कार्मण शरीर के रूप में, फिर मन इसी भाँति वचन और काय के रूप में समस्त पुद्गलों का ग्रहण करके परिणत करे। उतने काल को पुद्गलपरावर्तन कहते हैं । उस के अधकाल को अर्धपुद्गलपरावर्तन कहते हैं । दूसरे शब्दों में – अनन्त अवसर्पिणी और अनन्त उत्सर्पिणी प्रमाण का एक कालविभाग अर्धपुद्गलपरावर्तन कहलाता है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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