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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६३४] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [ प्रथम अध्याय विधि के पाठ का संक्षिप्त रूप है । वन्दना' का सम्पूर्ण पाठ निम्नोक्त है ___"-तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि वंदामि नमसामि सरकारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थरण वंदामि । अर्थात् मैं तीन बार गुरु महाराज की दक्षिण की ओर से ले कर प्रदक्षिणा (हाथों का आवर्त -घुमाना) करता हूं, स्तुति करता हूँ, नमस्कार करता हूं, सत्कार करता हूँ. सम्मान करता हूं, गुरु महाराज कल्याणकारी हैं, मंगलकारी हैं, धर्म के देव हैं और ज्ञान के भण्डार हैं, ऐसे गुरु महाराज की मन, वचन और काया से सेवा करता हूं, श्री गुरु महाराज को मस्तक झुका कर वन्दना करता हूं। -सयहत्येणं विउलेणं असणं पाणं ४ – यहां ४ के अंक से खादिम और स्वादिम इन दो का भी ग्रहण जानना चाहिए । इस उल्लेख में -सयहत्थेणं-का यह भाव है कि सुमुख गृहपति के मानस में इस विचार से परम हर्ष हुअा कि मैं आज स्वयं अपने हाथों से मुम महाराज को आहार दूंगा। अाजकल के श्रावक को इस से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये । जब भी साधु महाराज घर पर पधारें तो स्वयं अपने हाथ से दान देने का संकल्प तथा तदनुसार आचरण करना चाहिये जो लाभ अपने हाथ से देने में होता है, वह किसी दूसरे के हाथ से दिलवाने में प्राप्त नहीं होता, यह बात श्री समुख गाथापति के जीवन से भलोभाँति स्पष्ट हो जाती है । फलत: जो श्रावक नौकरों से ही दान कराते हैं, वे भूल करते हैं। -तुट्टे ३-यहां पर उल्लेख किये गये ३ के अंक से -पडिलामेमाणे तुट्टे, पडिलाभिए वि तुट्टेइन पदों का ग्रहण करना चाहिए । इन का भावार्थ है कि सुमुख गृहपति दान देते समय मुदित - प्रसन्न हुआ और दान देने के पश्चात् भी हर्षित हुा । दान देने के पूर्व, दान देने के समय और दान देने के पश्चात् भी प्रसन्नता का अनुभव करना, यही दाता की विशेषता का प्रत्यक्ष चिह्न होता है। . -दव्वसुद्धणं ३-- यहां दिये गए ३ के अंक से-गाहगलुद्धणं, दायगसद्धणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए । इन का अभिप्राय ग्राहकशुद्धि से और दाता की शुद्धि से है, अर्थात् दान देने वाला और दान लेने वाला, दोनों ही शुद्ध होने चाहिएं। दान के सम्बन्ध में जैसा कि पहले बतलाया गया है, दाता, देय और ग्राहक - ये तीनों जहां शुद्ध होंगे वहां ही दान कल्याणकारी होता है। प्रकृत में समुख गृहपति दाता, उस का आहार देय और श्री सुदत्त (१) वन्दना के द्रव्य और भाव से दो भेद पाये जाते हैं । उपयोगशून्य होते हुए शरीर के - दो हाथ, दो पैर और एक मस्तक-इन पांच अंगों को नत करना द्रव्यवन्दन कहलाता है, तथा जब इन्हीं पांचों अंगों से भावसहित विशुद्ध एवं निर्मल मन के उपयोग से वन्दन किया जाता है तब वह भाववन्दन कहलाता है। (२) पहले समय में तीर्थंकर या गुरुदेव समवसरण के ठीक बीच में बैठा करते थे, अतः अागन्तुक व्यक्ति भगवान् को या गुरुदेव के चारों ओर घूम कर फिर सामने आकर पांचों अङ्गनमा कर वन्दन किया करता था । घूमना गुरुदेव के दाहिने हाथ से प्रारम्भ किया जाता था, इन सारे भावों को आदक्षिण प्रदक्षिणा, इन पदों द्वारा सूचित किया गया है, परन्तु आज यह परम्परा विच्छिन्न हो गई है आज तो गुरुदेव के दाहिनी ओर से बाई ओर अंजलिबद्ध हाथ घुमा कर आवर्तन किया जाता है । श्रावर्तन ने ही प्रदक्षिणा का स्थान ले लिया है। आजकल की इस प्रकार की प्रदक्षिणा - क्रिया का स्पष्ट रूप आरती उतारने की क्रिया में दृष्टिगोचर होता है। अञ्जलिबद्ध हाथों का श्रावर्तन प्राचीन प्रदक्षिणा का मात्र प्रतीक है। (३) अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन पदों का अर्थ पृष्ठ ४८ की टिप्पणी में दिया जा चुका है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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