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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय करता हुआ पुनीत होता है । इस का निश्चय उस के ऐहिक मानवी वैभव से होता है। विशिष्ट बोधसम्पन्न व्यक्ति की दृष्टि में अात्मा की उत्पत्ति या विनाश नहीं होता है । अर्थात् "किसी समय में उस की उत्पत्ति हुई होगी और किसी समय उस का विनाश होगा'' इस साधारणजनसंमत अताविक कल्पना को उन के हृदय में कोई स्थान नहीं होता : वे जानते हैं कि कोई पुरुष पुराने वस्त्रों को त्याग नवीन वस्त्र धारण करने पर नया नहीं हो जाता, उसी प्रकार नवीन शरीर ग्रहण कर लेने पर आत्मा भी नहीं बदलता । अात्मा की सत्ता त्रैकालिक है । वह आदि, अन्त हीन और काल की परिधि से बाहिर है । शरीर उत्पन्न होते हैं और विनष्ट भी हो जाते हैं, परन्तु शरीरी-आत्मा अविनाशी है । वह नानाविध आभूषणों में व्याप्त सुवर्ण की भांति ध्रुव है । इस अबाधित सत्य को ध्यान में रखते हुए सुबाहुकुमार के पूर्वभव की पृच्छा की गई है । तथा "किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा"-इत्यादि अनेकविध प्रश्नों का तात्पर्य यह है कि ये सभी पुण्योपार्जन के साधन हैं । इम में से किसी का भी सम्यग अनुष्ठान पुण्यप्रकृति के बन्ध का हेतु हो सकता है, परन्तु सुबाहुकुमार ने इन में से किस का आराधन किया था ? यही प्रस्तुत में प्रष्टव्य है। . प्रस्तुत सूत्र में सुबाहुकुमार को देख कर गौतम स्वामी के विस्मित होने तथा उसे प्राप्त हुई मानवी ऋद्धि का मूलकारण पूछते हुए उस के पूर्वभव की जिज्ञासा करने आदि का वर्णन किया है । इस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया अब सूत्रकार उस का प्रतिपादन करते हैं - मूल-'एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दोवे दीवे मारहे वासे हथिणाउरे णामं णगरे होत्था, रिद्ध० । तत्थ णं हथिणाउरे गरे सुमुहे णाम गाहावती. परिवसति शड्ढे । तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा णाम थेरा जातिसंपन्ना जाव पंचहि समणसतेहिं सद्धिं संपरिवुडा पुव्वाणुपुचि चरमाणा गामानुगाम दूइज्जमाणा जेणेव हथियाउरे ण गरे जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता महापडिरूवं उग्गहं उग्गिरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति । तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसाणं थेराणं अन्तेवासी सुदत्ते अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमपोरिसीए मझायं करेति, जहा गोयमसामी तहेव सुहम्मे थेरे आपुच्छति, जाव अडमाणे सुमुहस्स गाहावांतस्स गिह अणुपविट्ठ। (१) छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तास्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरं नाम नगरमभूद् , ऋद्ध० । तत्र हस्तिनापुरे नगरे सुमुखो नाम गाथापतिः परिवसति, आठ्यः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मघोषा नाम स्थविरा जातिसम्पन्ना यावत् पञ्चभिः श्रमणशते: सार्द्ध संपरिवृताः पूर्वानुपूर्वी चरन्तो ग्रामानुग्राम द्रवंतो यत्रैव हस्तिनापुर नगरं यत्रैव सहस्राम्रवणमुद्यानं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसा श्रात्मानं भावयन्तो विहरन्ति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मघोषाणां स्थविराणामन्तेवासी सुदत्तो नाम अनगार उदारो यावत् तेजोलेश्यो मासंमासेन क्षममाणो विहरति । ततः स सुदत्तोऽनगारो मासनमणपारण के प्रथमपौरुष्या स्वाध्यायं करोति, यथा गौतमस्वामी तथैव सुधर्मणः स्थविरात् आपृच्छति यावदटन् सुमुखस्य गाथापते हमनुप्रविष्टः । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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