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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६११ पंजलिउडे पज्जुवासमाणे २ - इन पदों का परिचायक है । तए णं से भयवं गोयमे सुबाहुकमारंइत्यादि पदों का अर्थ निम्नोक्त है - सुबाहकुमार को देखने के अनन्तर भगवान् गौतम को उस की ऋद्धि के मूल कारण को जानने की इच्छा हुई और साथ में यह संशय भी उत्पन्न हुआ कि सुबाहुकुमार ने क्या दान दिया था?, क्या भोजन खाया था १, कौन सा उत्तम प्रावरण किया था ?, क्या सुबाहुकुामार ने किसी मुनिराज के चरणों में रह कर धर्म प्रवण किया था या कोई और सुकृत्य किया था, जिस के कारण इन को इस प्रकार की ऋद्धि सम्प्राप्त हो रही है ?, तथा गौतम स्वामी को यह उत्सुकता भी उत्पन्न हुई कि देख प्रभु वीर सुबाहुकुमार की गुणसम्पदा का मूल - कारण दान बताते हैं. या कोई अन्य उत्तम आचरण १, अथवा जब प्रभुवीर मेरे संशय का समाधान करते हए असने अमृतमय वचन सुनावेंगे तब उन के अमृतमय वचन श्रवण करने से मुझे कितना आनन्द होगा १, इन विचारों से गौतम स्वामी के मानस में कौतूहल उत्पन्न हुआ। प्रस्तुत में जो जात, संजात, उत्पन्न तथा समुत्पन्न ये चार पद दिये हैं, इन में प्रथम जात शब्द साधारण तथा संजातशब्द विशेष का, इसी भांति उत्पन्नशब्द भी सामान्य का और समुत्पन्नशब्द विशेष का ज्ञान कराता है । तात्पर्य यह है कि इच्छा हुई, इच्छा बहुत हुई, संशय हा, संशय बहुत हुश्रा, कौतूहल हश्रा, बहुत कौतूहल हुअा, इसी भाँति- इच्छा उत्पन्न हुई, बहुत इच्छा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुआ, बहुत संशय उत्पन्न हुआ, कौतूहल उत्पन्न हुआ, बहुत कौतूहल उत्पन्न हुआ-इस सामान्य विशेष की भिन्नता को सूचित करने के लिए ही जात और उत्पन्न शब्द के साथ सम् उपसग का संयोजन किया गया है । जात और उत्पन्न शब्दों में इतना ही अन्तर है कि उत्पन्न शब्द उत्पत्ति का और जात शब्द उस की प्रवृत्ति का संसूचक है । अर्थात् पहले इच्छा, संशय और कौतूहल उत्पन्न हा तदनन्तर उस में प्रवृत्ति हुई। इस भाँति उत्पत्ति और प्रवृत्ति का कार्यकारणभाव सूचित करने के लिये जात और उत्पन्न ये दोनों पद प्रयुक्त किये गए हैं । जातश्रद्ध आदि शब्दों का अधिक अर्थसंबन्धी ऊहापोह पृष्ठ १२ ले कर पृष्ठ १७ तक किया गया है । पाठक वहीं पर देख सकते हैं। जातश्रद्ध, जातसंशय, जातकौतूहल, संजातश्रद्ध, संजातसंशय, संजातकौतूहल, उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय, उत्पन्न कौतूहल, समुत्पन्नश्रद्ध , समुत्पन्नसंशय तथा समुत्पन्नकौतूहल श्री गौतम स्वामी उत्थान क्रिया के द्वारा उठ कर जिस ओर श्रमन् भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, उस ओर आते हैं, अाकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर के प्रदक्षिणा करके वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं, नमस्कार कर के बहुत पास, न बहुत दूर इस प्रकार शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए विनय से ललाट पर अञ्जलि रख कर भक्ति करते हुए। -इ8 जाव सुरूवे- यहां पठित जाव-यावत् पद - इठरूवे, कन्ते, कन्तरूवे, पिए, पियरूवे, मणुराणे, मणुण्णरूवे, मणोमे, मणोमरुवे, सोमे, सुभगे, पियदसणे, सुरूवे-इन पदों का तथा - इहरूवे जाव सुरुवे-यहां पठित जाव-यावत् पद-कन्ते, कन्तरूवे, पिए, पियरूवे, मणुराणे, मणुएणरुवे मणोमे, मणोमरूवे, सोमे, सुभगे, पियदंसणे - इन पदों का परिचायक है। -इमा एयारूवा-इन दोनों का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में-इयं प्रत्यक्षा एतद्पा , उपलभ्य, मानस्वरूप व अकृत्रिमत्यर्थः- इस प्रकार है । अर्थात् यह प्रत्यक्षरूप से उपलब्ध होने वाली अकृत्रिम-जिस में किसी प्रकार की बनावट नहीं- ऐसी उदार मानवी ऋद्धि सुबाहुकुमार ने कैसे प्राप्त की ? -को वा एस श्रासि पुठवभवे जाव समन्नागया-यहां पठित जाव-यावत् पद से For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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