SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 700
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६१०] श्रीविपासूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय पत्तोति ? केन हेतुना प्राप्ता- उपार्जिता सती प्राप्तिमुपगता । किराणा अभिसमन्नागया १ त्तिप्राप्तापि सती केन हेतुना श्राभिमुख्येन सांगत्येन चोपार्जनस्य च पश्चात् भोग्यतामुपगते त - अर्थात् किस कारण से इस ने उपार्जित की है, और किस हेतु से उपार्जित की हुई को प्राप्त किया है ? तथा उपार्जित और प्राप्त का उपभोग में आने का क्या कारण है ?-"ऐसा कहा जा सकता है । मूल में -“लद्रा, पत्ता, अभिसमन्नागया" - ये तीन पद दिये हैं. जिन का संस्कृत प्रतिरूप - लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्याग. ता - होता है। तब लब्धा, प्राप्ता और समन्वागता में जो अन्तर है अर्थात् अर्थविभेद है, उस को समझ लेना भी आवश्यक है । इन की अर्थविभिन्नता को निम्नोक्त एक उदाहरण के द्वारा पाठक समझने का यत्न करें - कल्पना करो कि किसी मनुष्य को उस के काम के बदले राजा की तरफ से उसे पारितोषिक - इनाम के रूप में कुछ धन देने की आज्ञा हुई। द्रव्य देने वाले खजांची को भी आदेश कर दिया गया, पर अब तक वह पारितोषिक - इनाम उस को मिला नहीं। इस अवस्था में उस इनाम को लब्ध कहेंगे, और जिस समय इनाम का वह द्रव्य उस को मिल गया हो, उस के हाथ में आगया हो तब उसे प्रार कहेंगे, अर्थात् इनाम देने की आज्ञा तक तो वह लब्ध है और उस के मिल जाने पर वह प्राप्त कहलाता है। यह तो हुआ लब्ध और प्राप्त का भेद । अब “समन्वागत” के अर्थविभेद को देखिये-लब्ध और प्राप्त हुए द्रव्य का उपभोग करना, उसे अपने व्यवहार में लाना अभिलमन्वागत कहलाता है . मानवी ऋद्धि के रूप में इन तीनों का समन्वय इस प्रकार है -मनुष्य शरीर की प्राप्ति के योग्य कर्मों का बांधना तो लब्ध है, और उस शरीर का मिल जाना है प्राप्त, और मनुष्य शरीर को सेवादि कार्यों में लगाना उस का अभिसमन्वागत है। जैसा कि ऊपर बतलाया गया है कि एक मनुष्य को राजा की तरफ़ से इनाम देने का हुकम हुअा और ख़ज़ाने से उसे मिल भी गया, परन्तु बीमार पड़ जाने या और किसी अनिवार्य प्रतिबन्ध के उपस्थित हो जाने से वह उस का उपभोग नहीं कर पाया, उसे अपने व्यवहार में नहीं ला सका, तब उस इनाम का उपलब्ध और प्राप्त होना न होने के समान है । अत: प्राप्त हुए का यथारुचि सम्यकतया उपभोग करने का नाम ही अभिसमन्वागत है अर्थात् जो भली प्रकार से उपभोग में आ सके उसे अभिसमन्वागत कहते हैं । पूर्वोपार्जित पुण्य से सुबाहुकुमार को मानवशरीर की पूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है तथा उसे सुरक्षित रखने के साधन भी मिले हैं और वह उस सामग्री का यथेष्ट उपभोग भी कर रहा है । तब इस प्रकार के मानव शरीर में प्रत्यक्षरूप से उपलभ्यमान गणसंहति से श्राषित हुश्रा व्यक्ति यदि उस के मूल कारण की शोध के लिए प्रयत्न करे तो वह समुचित ही कहा जाएगा। गौतम स्वामी भी इसी कारण से सुबाहु कुमार की गुणसंहति के प्रत्यक्षस्वरूप की मौलिकता को जानने के लिए उत्सुक हो कर भगवान् से पूछ रहे हैं कि हे भगवन् ! यह सुबाहुकमार पूर्वभव में कौन था ? कहां था ? किस रूप में था? और किस दशा में था ? इत्यादि । ___ -इन्दभूती जाव एवं-यहां पठित जाव-यावत् पद पृष्ठ १० की टिप्पणी में पढ़े गये-नाम अणगारे गोयमसगोत्तणं सत्तु स्सेहे-से ले कर – झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ-इन पदों का तथा-तए णं से भगवं गोयमे सुबाहुकुमारं पासित्ता जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले उत्पन्नसड्ढे उपन्नसंसर, उपपन्नको उहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले उठाए उठेइ उठाए उठित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ वंदइ नमसइ वन्दित्ता नमंसित्ता पच्चासन्ने णाइदूरे सुस्तूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विण रणं For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy