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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । अतिरिक्त पौषधोपवासव्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त ५ कार्यों को अवश्य त्याग देना चाहिए १ - पौषध के समय काम में लिये जाने वाले पाट, बिछौना, आसन आदि की प्रतिलेखना (निरीक्षण) न करना । अथवा मन लगा कर प्रतिलेखना की विधि के अनुसार प्रतिलेखना नहीं करना तथा प्रतिलेखित पाट का काम में लाना । २ – पौषध के समय काम में लिये जाने वाले पाट, आसन आदि का पारमाजन न करना । अथवा विधि से रहित परिमार्जन करना । प्रतिलेखन और परिमार्जन में इतना ही अन्तर होता है कि प्रतिलेखन तो दृष्टि द्वारा किया जाता है, जबकि परिमाजन रजोहरणी - पूजनी या रजोहरण द्वारा हुआ करता है, तथा प्रतिलेखन केवल प्रकाश में ही होता है, जबकि परिमार्जन रात्रि को भी हो सकता है । तात्पर्य यह है कि कल्पना करो दिन में पाट का निरीक्षण हो रहा है । किसी जीव जन्तु के वहां दृष्टिगोचर होने पर रजोहरणी आदि से उसे यतनापूर्वक दूर कर देना, इस प्रकार प्रकाश में प्रतिलेखन तथा परिमार्जन होता है परन्तु रात्रि में अंधकार के कारण कुछ दीखता नहीं तो यतनापूर्वक रजोहरणादि से स्थान को यतनापूर्वक परिमार्जन करना अर्थात् वहां से जीवादि को अलग करना । यही परिमार्जन और प्रतिलेखन में भिन्नता है । [ ५९७ ३ - शरीर चिन्ता से निवृत्त होने के लिये त्यागे जाने वाले पदार्थों को त्यागने के स्थान की प्रतिलेखना न करना । श्रथवा उस की भलीमान्ति प्रतिलेखना न करना । ४ - मल, मूत्रादि गिराने की भूमि का परिमार्जन न करना, यदि किया भी है तो भली प्रकार से नहीं किया गया । ५ - पौषधोपवासव्रत का सम्यक् प्रकार से उपयोगसहित पालन न करना अर्थात् पौध में आहार, शरीरशुश्रूषा मैथुन तथा सावद्य व्यापार की कामना करना । - ४ - अतिथिसंविभागवत जिस के आने का कोई समय नियत नहीं है जो बिना सूचना दिये, अनायास ही आ जाता है उसे अतिथि कहते हैं । ऐसे अतिथि का सत्कार करने के लिये भोजन आदि पदार्थों में विभाग करना अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है । अथवा — जो श्रात्मज्योति को जगाने के लिये सांसारिक खटपट का त्याग कर संयम का पालन करते हैं, सन्तोषवृत्ति को धारण करते हैं, उन को जीवननिर्वाह के लिये अपने वास्ते तैयार किये गये १ - अशन, २ -- पान, ३ खादिम ४- स्वादिम, ५ - वस्त्र, ६ – पात्र, ७ - कम्बल (जो शीत से रक्षा करने वाला होता है), ८-- पादप्रोछन (रजोहरण तथा रजोहरणी, ९ पीठ (बैठने के काम आने वाले पाठ आदि), १० फक (सोने के काम आने वाले लम्बे २ पाट), ११ - शय्या ( ठहरने के लिये घर), १२ -- संधार (बिछाने के लिये घास आदि), १३ औषध (जो एक चीज़ को पीस कर बनाई जात्रे ) र १४ - भोजन (जो अनेकों के सम्मिश्रण से बनी है) ये चौदह प्रकार के पदार्थ निष्काम बुद्धि के साथ आत्मकल्याण को भावना से देना तथा दान का संयोग न भावना बनाये रखना अतिथिस विभागवत कहलाता है । कूट या मिलने पर भी सदा ऐसी For Private And Personal भर्तृहरि ने धन की दान भोग और नाश ये तीन गतिएं मानी हैं । अर्थात् धन दान देने से जाता हैं, भोगों में लगाने से जाता है या नष्ट हो जाता है। जो धन न दान में दिया गया और न भोगों में लगाया गय उस की तीसरी गति होती है अर्थात् वह नष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह है कि धन ने जब एक दिन नष्ट हो ही जाना है तो दान के द्वारा क्यों न उस का सदुपयोग कर लिया जाये १ इस का अधिक संग्रह करना किसी भी दृष्टि से हितावह नहीं है | अधिक बढ़े हुए धन को नख की उपमा दी जा सकती है। बढ़ा हुआ नख अपने तथा दूसरे के शरीर पर जहां भी लगेगा वहीं घाव ही करेगा, इसी प्रकार अधिक बढ़ा हुआ धन अपने को तथा अपने
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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