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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय ... ३-शब्दानुपात-मर्यादा में रखी हुई भूमि के बाहिर का कोई कार्य होने पर मर्यादित भूमि में रह कर छींक आदि ऐसा शब्द करना जिस से दूसरा शब्द का आशय समझ कर उस कार्य को कर देवे। इस में शब्द की प्रधानता है। ४-- रूपानुपात-मर्यादित भूमि से बाहिर कोई कार्य उपस्थित होने पर इस तरह की शारीरिक चेष्टा करना कि जिस से दूसरा व्यक्ति आशय समझ कर उस काम को कर दे । ५.-बाह्यपुद्गलप्रक्षेप-मर्यादित भूमि से बाहिर कोई प्रयोजन होने पर दूसरे को अपना आशय समझाने के लिए ढेला, कंकर आदि पुद्गलों का प्रक्षेप करना। ३-पौषधोपवासव्रत-धम को पुष्ट करने वाला नियमविशेष धारण कर के उपवाससहित पौषधशाला में रहना पौषधोपवासवत कहलाता है। वह चार प्रकार का होता है। उन चारों के भी पुन: देश और सर्व ऐसे दो २ भेद होते हैं। उन सब का नामपूर्वक विवरण निम्नोक्त है १-श्राहारपौषध-एकासन, आयंबिल करना देश-आहारत्यागपौषध है, तथा एक दिन रात के लिए अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम इन चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा त्याग करना सर्व. श्राहारत्यागपौषध कहलाता है। २-शरीरपोषध-उद्वर्तन, अभ्यंगन, स्नान, अनुलेपन आदि शरीरसम्बन्धी अलंकार के साधनों में से कुछ त्यागना और कुछ न त्यागना देश-शरीरपौषध कहलाता है तथा दिन रात के लिए शरीरसम्बन्धी अलंकार के सभी साधनों का सर्वथा त्याग करना सर्व-शरीरपौषध है। ३-ब्रह्मचर्यपौषध-केवल दिन या रात्रि में मैथुन का त्याग करना देश-ब्रह्मचर्यपौषध और दिन रात के लिए सर्वथा मैथुन का त्याग कर धर्म का पोषण करना सर्व-ब्रह्मचर्यपौषध कहलाता है। ४-अव्यापारपौषध-श्राजीविका के लिए किए जाने वाले कार्यों में से कुछ का त्याग करना देश-अव्यापारपौषध और आजीविका के सभी कार्यों का दिन रात के लिए त्याग करना सर्व-अव्यापारपोषध कहलाता है। ... इन चारों प्रकार के पौषधों को देश या सर्व से ग्रहण करना ही पोषधोपवास कहलाता है। जो पौषधोपवास देश से किया जाता है वह सामायिक (सावद्यत्याग) सहित भी किया जा सकता है और सामायिक के बिना भी। जैसे-केवल आयंबिल आदि करना, शरीरसम्बन्धी अलंकार का अांशिक त्याग करना, ब्रह्मचर्य का कुछ नियम लेना या किसी व्यापार का त्याग करना परन्तु पौषध की वृत्ति धारण न करना, इस प्रकार के पौषध (त्याग) दशवें प्रत के अन्तर्गत माने गये हैं प्रत्युत ग्यारहवां व्रत तो चारों प्रकार के आहारों का सवथा त्याग सामायिकपूर्ण दिन रात के लिए करने से होता है, उसे ही प्रतिपूर्ण पौषध कहते हैं । प्रतिपूर्ण पौषध का अर्थ संक्षेप में - आठ प्रहर के लिए चारों श्राहार, मणि, सुवर्ण तथा आभूषण, पुष्पमाला, सुगन्धित चूण आदि तथा सकल सावध व्यापारों को छोड़ कर धर्मस्थान में रहना और धर्मध्यान में लीन हो कर शुभ भावों के साथ उक्त काल को व्यतीत करना-ऐसे किया जा सकता है। ___ प्रतिपूर्ण पौषधव्रत के पालक की स्थिति साधुजीवन जैसी होती है । इसीलिए उस में कुरता, कमीज, कोट, पतलून आदि गृहस्थोचित वस्त्र नहीं पहने जाते । पलंग आदि पर सोया नहीं जाता और स्नान भी किया नहीं जाता, प्रत्युत कमीज़ आदि सब उतार कर शुद्ध धोतो आदि पहन कर मुख पर मुखवस्त्रका लगा कर तथा सांसारिक प्रपंचों से सर्वथा अलग रह कर साधु जीवन की भान्ति एकान्त में स्वाध्याय, ध्यान तथा आत्मचिन्तन आदि करते हुए जीवन को पवित्र बनाना हो इस व्रत का प्रवान उद्देश्य रहता है। इस के For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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