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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५७६ ] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय पालन करने वाला गृहस्थ जैनपरिभाषा के अनुसार देशविरति श्रावक कहलाता है। श्रावक के बारह ब्रतों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है। .. १-अहिंसाणवत-स्वशरीर में पीडाकारी तथा अपराधी के सिवाय शेष द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रियों वाले जीव आदि स जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का दो करण', तीन योग से त्याग करना श्रावक का स्थूल प्राणातिपातत्यागरूप प्रथम अहिंसाणवत है । दूसरे शब्दों में -- गृहस्थधर्म में पहला व्रत प्राणी की हिसा का परित्याग करना है। स्थावर जीव सून्म और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय हिलने चलने वाले त्रस प्राणी स्थूल कहलाते हैं । गृहस्थ सूक्ष्म जीवों की हिंसा से नहीं बच पाता अर्थात् वह सर्वथा सूक्ष्म अहिंसा का पालन नहीं कर सकता । इस लिये भगवान् ने गृहस्थधर्म और साधुधर्म की मर्यादा को नियमित करते हुए ऐसा मार्ग बतलाया है कि सामान्य गृहस्थ से लेकर चक्रवर्ती भी उस का सरलतापूर्वक अनुसरण करता हुआ धर्म का उपार्जन कर सकता है। - दूसरी बात यह है कि श्रावक - गृहस्थ के लिये सूक्ष्म हिंसा का त्याग शक्य नहीं है, क्योंकि उस ने चूल्हे का और चक्की का कृषि तथा गोपालन आदि का सब काम करना है। यदि इसे छोड़ दिया जाए तो उस के जीवन का निर्वाह नहीं हो सकेगा । इसलिये शास्त्रकारों ने श्रावक के लिये स्थूल हिंसा का त्याग बतला कर, उस में दो कोटिये नियत की हैं। एक श्राकुट्टी, दुसरी अनाकुट्टी, अर्थात् एक संकल्पी हिंसा दूसरी पारम्भी हिंसा । संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा का नाम संकल्पी और आरम्भ से उत्पन्न होने वाली हिंसा को श्रारम्भी हिंसा कहते हैं । इसे उदाहरण से समझिए - गाड़ी में बैठने का उद्देश्य मार्ग में चलने फिरने वाले कीड़े मकौड़ों को मारना नहीं होता । फिर भी प्रायः गाड़ी के नीचे कीड़े मकौड़े मर जाते हैं, इस प्रकार की हिंसा प्रारम्भी या श्रारम्भजा हिंसा कहलाती है। इसी भान्ति एक आदमी चींटियों को जान बूझ कर पत्थर से मारता है, इस प्रकार की हिंसा संकल्पी. या संकल्पजा कही जाती है । सारांश यह है कि त्रस जीवों को मारने का उद्देश्य न होने पर भी गृहस्थसम्बन्धी काम काज करते समय जो अबुद्धि-पूर्वक हिंसा होती है वह आरम्भजा है और संकल्पपूर्वक अर्थात् इरादे से जो हिंसा की जाए वह संकल्पना है। इन में पहले प्रकार की अर्थात् प्रारम्भजा हिंसा का त्याग करना गृहस्थ के लिए अशक्य है। घर का कूड़ा कचरा निकालने, रोटी बनाने. पाटा पीसने. और खेती बाड़ी करने तथा फलपुष्पादि के तोड़ने (१) दो करण. तीन योग से हिंसा नहीं करनी चाहिए, ऐसा कहने का अभिप्राय निम्नोक्त है : १-मारू नहीं मन से अर्थात् मन में किसी को मारने का विचार नहीं करना या हृदय में ऐसा मंत्र नहीं जपना कि जिस से किसी प्राणी की हिंसा हो जाय। __२-मारू नहीं वचन से अर्थात् किसी को शाप श्रादि नहीं देना, जिस से उस जीव की हिंसा हो जाय अथवा जो वाणी किसी प्राणापहार का ३-मारू नहीं काया से अर्थात् स्वयं अपनी काया से किसी नीव को नहीं मारना। ४-मरवाऊं नहीं मन से अर्थात् अपने मन से ऐसा मंत्रादि का जाप न करना जिस से दूसरे व्यक्ति के मन को प्रभावित कर के उस के द्वारा किसी प्राणी की हिंसा की जाए। - ५-मरवाऊं महीं वचन से अर्थात् वचन द्वारा कह कर दूसरे से किसी प्राणी के प्राणों का अपहरण नहीं करना । ६ - मरवाऊं नहीं काया से अर्थात् अपने हाथ आदि के संकेत से किसी प्राणी की हिंसा न कराना। किसी जीव को मारू नहीं, मरवाऊ नहीं ये दो करण और मन, वचम और काया, ये तीन मोगा कहलाते हैं । इस प्रकार जीवनपर्यन्त त्रस जीवों की हिंसा न करने का श्रावक के छः कोटि प्रत्याख्यान होता है । इसी भान्ति सत्य, अचौर्य आदि व्रतों के विषय में भी भावना कर लेनी चाहिये। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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