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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्यय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५७१ I I निकला । जाव - यावत् । धम्मो -धमं । कहियो — प्रतिपादन किया। राया- राजा ( चला गया और ) । परिसा परिषद् । गता - चली गई । तते णं तदनन्तर । से वह । सुबाहुकुमारे- सुबाहुकुमार । समणस्ल - श्रमण | भगवो - भगवान् । महावीरस्स - महावीर स्वामी के । श्रतिए - पास से । धम्मं - धर्म को । सोच्वा - श्रवण कर | निसम्म अर्थरूप से अवधारण कर । हट्ठतुट्ठे- - अत्यन्त प्रसन्न हुए २ । उट्ठाएस्वयंकृत उत्थान क्रिया के द्वारा । उट्ठेइ – उठते हैं । उट्ठा-उठ कर । समणं भगवंतं महावीरंश्रमण भगवान् महावीर स्वामी को । वंदइ वन्दित्ता - वन्दना करते हैं, कर के । नमसइ नमसित्ता - नमस्कार करते हैं, करके । एवं - इस प्रकार । वयासी - कहने लगे । भंते ! हे भदन्त ! | निग्गंथं पावयणंनिग्रंथ प्रवचन पर | सदहामि गं - मैं श्रद्धा करता हूं । जाव - यावत् । जहा गं - जैसे । देवाणुप्पियाणंआप श्री जी के । ति -पास बहवे अनेक । राईसर - राजा, ईश्वर । जाव - यावत् । मुडा भवित्ता - मुण्डित हो कर । अगाराश्रो- घर छोड़ कर । अणगारियं पव्वइया - मुनिधर्म को धारण किया है। खनु - निश्चय से मैं । तहा - उस प्रकार | मुंडे भवित्ता मुण्डित होकर । श्रगारा श्रो श्रगारियं - घर छोड़ कर अनगार अवस्था को । पव्वत्ताय - धारण करने में नो संचरमि - समर्थ नहीं हूँ । अहं णं - मैं तो । देवाविवाएं - आप श्री के । तिए - पास से । पञ्चाणुव्वत्तियं-पांच अणुव्रतों वाला। सत्तसिक्खावतियं-सात शिक्षाव्रतों वाला । दुवालसविहं - बारह प्रकार के । गिहिधम्मं - गृहस्थ धर्म को । पडिवज्जामि स्वीकार करना चाहता हूं । उत्तर में भगवान् ने कहा । श्रासुहं - यथा अर्थात् जैसे तुम को सुख हो । मा - मत । पडिबंध - देर करो । तते गं - तदनन्तर । से- वह । सुबाहुकुमारेसुबाहुकुमार । समणस्स - श्रमण । भगवत्रो - भगवान्। महावीरस्स-महावीर स्वामी के अंतिए - पास । पंचान्वतियं - पांच अणुव्रतों वाले । सत्ततिकखावतियं - सात शिक्षाव्रतों वाले । गिहिधम्मं - गृहस्थ - धर्म को । पडिवज्जति पडिवज्जित्ता स्वीकार करता है, स्वीकार कर के । तमेव - उसी । रहंरथ पर | दुरूहति दुरूहित्ता - - सवार होता है, सवार हो कर । जामेत्र दिसं - जिस दिशा से । पाउब्भूते - श्राया था। तामेव दिसं - उसी दिशा को । पडिगते- - चला गया । i मूलार्थ - उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हस्तिशीर्ष नगर में पधारे। परिषद् नगर से निकली । कूपिक को भांति महाराज अद्दीनशत्रु भी नगर से चले, तथा जमालि की तरह सुबाहुकुमार ने भी भगवान् के दर्शनार्थ रथ के द्वारा प्रस्थान किया, यावत् भगवान् ने धर्म का निरूपण किया । परिषद् और राजा धर्म कथा सुन कर चले गये । तदनन्तर भगवान महावीर स्वामी के पास धर्मकथा का श्रवण तथा मनन कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ सुबाहुकुमार उठ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन, नमस्कार करने के अनन्तर कहने लगा भगवन् ! मैं न प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, यावत् जिस तरह आप के श्री चरणों में अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उपस्थित होकर, मुडिन हो कर तथा गृहस्थावस्था से निकल कर अनगार धर्म में दीक्षित हुए हैं अर्थात् जिस तरह राजा ईश्वर आदि ने पांच महात्रतों को ग्रहण किया है, वैसे मैं पांच महाव्रतों को ग्रहण करने के योग्य नहीं हूं, अतः मैं पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों का जिस में विधान है ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थचमं का आप से अगीकार करना चाहता हूं। तब भगवान के “ – जैसे तुम को सुख हो, किन्तु इस में देर मत करो " ऐसा कहने पर सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास पंचाणुत्रत, सात शिक्षावरून वर प्रकार के गृहस्थधर्म को स्वीकार किया, अर्थात् क्त द्वादशविध व्रतों के यथाविधि पालन करने का नियम ग्रहण किया । तदनन्तर उसी रथ पर For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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