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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५७० श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय तदनन्तर सुबाहुकुमार ने अपनी प्रत्येक भार्या -पत्नी को एक एक करोड़ का हिरण्य और एक २ करोड़ का सुवर्ण दिया, एवं एक २ मुकुट दिया, इसी प्रकार पोसने वालो दासियों तक सब वस्तुए बांट दी तथा अन्य बहुत सा सुवर्णदि भो उन सब को बांट कर दे दिया । उस के पश्चात् सुबाहुकुमार...। -फुटमाणेहिं जाब विहरति- यहां के जाव-यावत् पद से विवक्षित-मुइंगमथएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं-से ले कर-पच्चणुभवमाणे-यहां तक के पदों का विवरण पृष्ठ २३४ पर दिया जा चुका है । अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां चोरसेनापति अभग्नसेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में श्री सुबाहुकुमार का। अब सूत्रकार सुबाहुकुमार के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हुए कहते हैंमल -'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे परिसा निग्गया। अदीणसर निग्गते जहा कूणिए । सुवाहू वि जहा जमाली, तहा रहेणं णिग्गते, जाव धम्मो कहिओ । राया परिसा गता। तते णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवश्रो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हहतुद्दे उठाए उ?इ उद्वित्ता समणं भगवंतं महावीरं वंदइ वन्दित्ता नमंसति नमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर जाव प्पभिईओ मुडा भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइया नो खलु अहं तहा संचाएमि मुडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइत्त । अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वतियं सत्तसिखावतिय दुवालसविह गिहिधम्म पडिवज्जामि । अहासुह देवाणुप्पिया ! मा पडिवंधं करेह । तते णं से सुबाहुकुपारे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वतियं सत्तसिक्खावतियं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जति पडिवज्जित्ता तमेव रहं दुरूहति दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउब्भूते तामेव दिसं पडिगते ।। पदार्थ-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में । समणे-श्रमण । भगवं-भगवान् महावीरे-महावीर स्वामी । समोसढे-पधारे । परिसा-परिषद् -~जनता। निग्गया-नगर से निकली। अदीणसत्त-अदीनशत्रु । निग्गते-निकले । जहा कूणिए-जैसे महाराज कणिक निकला था। सुबाहू वि-सुबाहुकुमार भी । जहा-जैसे । जमाली-जमालि । तहा-उसी प्रकार । रहेणं-रथ से । णिग्गते (१) छाया- तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीर: समवसृतः । परिषद् निर्गता । अदीनशत्रु निर्गतः यथा कूणिकः । सुबाहुरपि यथा जमालिस्तथा रथेन निर्गत: । यावद् धर्मः कथितः । राजा परिषद् गता। ततः सः सुबाहुकुमार: श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अंतिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट: उत्थाय उत्तिष्ठति उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं चंदते वन्दित्वा नमस्यति नमस्यित्वा एवमवादीत्-श्रद्दधामि भदन्त ! निग्रंथं प्रवचनम् । यथा देवानुप्रियाणामन्ति के बहवो राजेश्वर० यावद् प्रभृतयः मुण्डा: भूत्वा अनगाराद् अनगारितां प्रजिता:, नो खलु अहं तथा शक्नोमि मुंडो भूत्वा अगारादनगारितां प्रवजितुम् । अहं देवानुप्रियाणामन्तिके पंचाणुवतिकं, सप्तशिक्षाप्रतिकं, द्वादश विधं गृहिधर्म प्रतिपद्य । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धं कुर्याः । ततः स सुबाहुकुमार: श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पंचायुवतिक, सप्तशिक्षाप्रतिक द्वादशविधं गृहिधर्म प्रतिपद्यते प्रतिपद्य तमेव रथं आरोहति प्रारुह्य यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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