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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५५० श्री विपाक सूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध-- [प्रथम अध्याय ४-पात्रविशेषता- दान लेने वाले व्यक्ति का सत्पुरुषार्थ के लिये ही सतत जागरूक रहना पात्र' की विशेषता है। दूसरे शब्दों में - जो दान ले रहा है उस का अपने आप को मानवीय आध्यात्मिक विकास की चरम सीमा की ओर झुकाव तथा सदनुष्ठान में निरंतर सावधानता ही पात्र की विशेषता है। पात्रता की विशेषता वाले को सुपात्र कहते हैं, तथा सुपात्र को जो दाम दिया जाता है, उसे मात्रदान कहते हैं । सुपात्रदान कर्मनिजरा का साधक है ओर दाता के लिये संसारसमुद्र से पार कर परमात्मपद को प्राप्त करने में सहायक बनता है । सुपात्रदान की सफलता के लिये भावना महान् सहायक होती है । भावना जितनी उत्तम एवं सबल होती है, उतना ही सुपात्रदान जीवन के विकास में उपयोगी एवं हितावह रहता है। प्रस्तुत सूत्र के सुखविपाक नामक द्वितीय श्रुतस्कंध के इस प्रथम अध्ययन में स्वनामधन्य पुण्यश्लोक श्री सुबाह कुमार जी का परम पवित्र जीवनवृत्तान्त प्रस्तावित हुश्रा है, जिन्हों ने सुमुख गाथापति के भव में महामहिम तपस्विराज श्रीसुदत्त अनगार को उत्कृष्ट परिणामों से दान देकर संसार को परिमित और मनुष्यायु का बन्ध किया था, दूसरे शब्दों में उन्होंने उत्कृष्ट भावना के साथ एक सुपात्र को दान दे कर अपने भविष्य को उज्ज्वल समुज्ज्वल एवं अत्युज्ज्वल बनाया था। इस अध्ययन का प्रारम्भ इस प्रकार होता है मूल- २ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे गुणसिलए चेहए, सुहम्मे समोसढे । जंबू जाव पज्जुवामति, एवं वयासी-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेण दुहविवागाणं अयम8 पएणत्ते, सुहविवागाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पएणते ?, तते णं से सुहम्मे अणगारे जम्बुमणगार एवं वयासी-एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्मयणा पएणत्ता, तंजहा - (१) सुबाह, (२) मद्दनंदो, य (३) सुजाए, (४) सुवासवे, (५) तहेव जिणदासे, (६) घणवती, य (७) महबलो, (८) मदनन्दी, य (8) महचंदे, (१०) वरदत्ते । जति णं भंते ! सपणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पगणता, पढमस्स णं भंते १ अझयणस्स सुहविवागाणं जाव संपणं के अट्ठे पएणते ?, तते णं से सुहम्मे जंबुमणगार एवं वयांसी । . (१) अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसगों दानम् । विधिद्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः। तत्त्वार्थसत्र अ०७, सूत्र ३३/३४, के हिन्दीविवेचन में पण्डितप्रवर श्री सुखलाल जी। " (२) छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे गुणशिले चैत्ये सुधर्मा समवसृतः। जम्बूः यावत् पयुपास्ते एवमवादीत् -यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन दुःखविपाकानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, सुखविपाकानां भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रजप्तः १, तत: स सुधर्माऽनगारो जम्बूमनगारमेवमवादीत् -एवं खलु जम्बू: ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन सुखविपाकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-१ . सुबाहुः, २भद्रन-दी च, ३ - सुजातः, ४-सुवासवः, ५ - तथैव जिनदासः, ६-धनपतिश्च, ७ --महाबलः, ८-भद्रनन्दी, ९-महाचन्द्रः. १० - वरदत्तः । यदि भदन्त ! श्रमणे न यावत् संप्राप्तेन, सुखविपाकानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य भदन्त ! अध्ययनस्य सुखविपाकानां यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्त: ?. ततः स सुधर्मा जम्बूमनगारमेवमवादीत् । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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