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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५४७ ३३ - तारक – जो दूसरों को संसारसागर से तराने वाला है, उसे तारक कहते है । भगवान् महावीर स्वामी ने जुनमाली आदि अनेकानेक भव्य पुरुषों को संसारसागर से तारा था । ३४ - बुद्ध - जो सम्पूर्ण तत्त्वों के बोध को उपलब्ध कर रहा हो, वह बुद्ध कहलाता है । ३५ - बोधक - जो दूसरों को जीव, अजीव आदि तत्त्वों का बोध देने वाला हो, उसे बोधक कहते हैं । जीव आदि तत्त्वों का बोध देने के कारण भगवान् को बोधक कहा गया है। I ३६ - मुक्त - जो स्वयं कर्मों से मुक्त है, अथवा - जो बाह्य और श्राभ्यन्तर दोनों प्रकार की ग्रन्थियों गांठों से रहित हो, उसे मुक्त कहा जाता है । भगवान् महावीर स्वामी आभ्यन्तर और बाह्य ग्रन्थियों से रहित थे । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अज्ञान ३७ - मोचक जो दूसरों को कर्मों के बन्धनों से मुक्त करवाता है, उसे मोचक कहते हैं । ३८ - सर्वज्ञ - चर और अचर सभी पदार्थों का ज्ञान रखने वाला और जिस में का सर्वथा अभाव हो, वह सर्वज्ञ कहलाता है । भगवान् घट २ के ज्ञाता होने के कारण सर्वज्ञ कहे गए हैं। ३९ - सर्वदर्शी - चर और अचर सभी पदार्थों का द्रष्टा, सर्वदर्शी कहा जाता है । भगवान् सर्वदर्शी थे । ४० - शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त । अर्थात् शिव आदि पद सिद्धगति (जिस के सब काम सिद्ध - पूर्ण हो जावें उसे सिद्ध कहते हैं । आत्मा निष्कर्म एवं कृतकृत्य होने के अनन्तर जहां जाता है उसे सिद्वगति कहा जाता है) नामक स्थान के विशेषण हैं। शिव आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है - १ - शिव कल्याणरूप को कहते हैं । अथवा - जो बाधा, पीड़ा और से रहित हो वह शिव दुःख कहलाता है । सिद्धगति में किसी प्रकार की बाधा या पीड़ा नहीं होती, अतः उसे शिव कहते हैं । २ - अचल – चल रहित अर्थात् स्थिर को कहते हैं । चलन दो प्रकार का होता है, एक स्वाभाविक दूसरा प्रायोगिक । दूसरे की प्रेरणा बिना अथवा अपने पुरुषार्थ के बिना मात्र स्वभाव से हो जो चलन होता है, वह स्वाभाविकचलन कहा जाता है। जैसे जल में स्वभाव से चंचलता है, इसी प्रकार बैठा मनुष्य भले ही स्थिर दीखता है किन्तु योगापेक्षया उस में भी चंचलता है, इसे ही स्वाभाविकचलन कहते हैं । वायु आदि बाह्य निमित्तों से जो चंचलता उत्पन्न होती है, वह प्रायोगिकचलन कहलाता है । मुक्तात्माओं में न स्वभाव से ही चलन होता है और न प्रयोग से ही । मुक्तात्माओं में गति का अभाव है, इसलिये भी वह अचल है । ३ - रुज - रोगरहित को अरुज कहते है । शरीर रहित होने के कारण मुक्तात्मा को वात, पित्त और कफ़ जन्य शारीरिक रोग नहीं होने पाते और कर्मरहित होने से भाव रोग रागद्व ेषादि भी नहीं हो । ४ अनन्त अन्तर रहित का नाम है । मुक्तात्माएं सभी गुणापेक्षया समान होती है । अथवा मुकात्माओं का ज्ञान, दर्शन अनन्त होता है और अनन्त पदार्थों को जानता तथा देखता है, अत एव गुणापेक्षया वे अनन्त हैं । अथवा अन्तरहित को अनन्त कहते हैं । सिद्धगति प्राप्त करने की आदि तो है, परन्तु उसका अन्त नहीं, इसलिये उस को अनन्त कहते हैं । 1 ५ - श्रक्षय - क्षयरहित का नाम है । मुक्तात्माओं की ज्ञानादि आत्मविभूति में किसी प्रकार की होता नहीं श्राने पाती, इस लिये उसे अक्षय कहते है । ६ - अव्याजाव - पीड़ारहित को अबाध कहते हैं । मुक्तात्माओं को सिद्धगति में किसी प्रकार का कष्ट या शोक नहीं होता और न वे किसी दूसरे को पीड़ा पहुँचाते हैं । ७ - पुनरावृत्ति - पुनरागमन से रहित का नाम है, अर्थात् जो जन्म तथा मरण से रहित हो कर For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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