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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री विषाक सूत्र ५४६ ] [दशम अध्याय हैं । अथवा - जिस प्रकार सब चक्रवर्ती के अधीन होते हैं, चक्रवर्ती के विशाल साम्राज्य में हो सब राजाओं का राज्य अन्तर्गत हो जाता है अर्थात् अन्य राजाओं का राज्य चक्रवर्ती के राज्य का ही एक अंश होता है, उसी प्रकार संसार के समस्त धर्मतत्त्व भगवान् के तत्त्व के नीचे आ गये हैं । भगवान् का अनेकान्त तत्त्व चक्रवर्ती के विशाल साम्राज्य के समान है और अन्य धर्मप्ररूपकों के तत्त्व एकान्तरूप होने के कारण अन्य राजाओं के समान | सभी एकान्तरूप धर्मतत्व अनेकान्त तत्त्व के अन्तर्गत हो जाते हैं । इसी लिये भगवान् को धर्म का श्रेष्ठ चक्रवर्ती कहा गया है । २७ - द्वीप, त्राण, शरण, गति, प्रतिष्ठा - द्वीप टापू को कहते हैं, अर्थात् संसार - सागर में नानाविध दुःखों की विशाल लहरों के अभिघात से व्याकुल प्राणियों को भगवान् सान्त्वना प्रदान करने के कारण द्वीप कहे गये हैं । अनर्थों - दुःखों के नाशक को त्राण कहते हैं । धर्म और मोक्षरूप अर्थ का सम्पादन करने के कारण भगवान् को शरण कहा गया है। दुःखियों के द्वारा सुख की प्राप्ति के लिये जिस का आश्रय लिया जाए उसे गति कहते हैं। प्रतिष्ठा शब्द "- संसाररूप गर्त में पतित प्राणियों के लिये जो श्राधाररूप है - " इस अर्थ का परिचायक है । दुःखियों को श्राश्रय देने के कारण गति और उन का आधार होने से भगवान् को प्रतिधा कहा गया है । -- Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मूल में भगवया इत्यादि पद तृतीयान्त प्रस्तुत हुए हैं, जब कि दीवो इत्यादि पद प्रथमान्त । ऐसा क्यों है ? यह प्रश्न उत्पन्न होना अस्वाभाविक नहीं है, परन्तु श्रपपातिकसूत्र में वृत्तिकार भयदेव सूरि ने - नमोऽयुगं श्ररिहन्ताणं भगवन्ताणं - इत्यादि षष्ठयन्त पदों में पढ़े गये - दीवो ताणं सरणं गई पट्टाइन प्रथमान्त पदों की व्याख्या में - दीवा ताणं सरणं गई पट्ठा इत्यत्र जे तेर्सि नमोऽयु णमित्येवं गमनमिका कार्येति - इस प्रकार लिखा है । । अर्थात् वृत्तिकार के मतानुसार - दोत्रो ताणं सरणं गई पट्ठाऐसा ही पाठ उपलब्ध होता है और उसके अर्थसंकलन में जे तेसिं नमोऽयु णं - ( जो द्वीप, त्राण, शरण, गति और प्रतिष्ठा रूप हैं उन को नमस्कार हो), ऐसा अध्याहारमूलक अन्वय किया है । प्रस्तुत में जो प्रश्न उपस्थित हो रहा है, वह भी वृत्तिकार की मान्यतानुसार - दोवो ताणं सरणं गई पइट्टा, इत्यत्र जो तेरा त्ति - (जो द्वीप, त्राण, शरण, गति तथा प्रतिष्ठा रूप है, उस ने ) इस पद्धति से समाहित हो जाता है 1 २८ - अप्रतिहतज्ञानदर्शनवर - अप्रतिहत का अर्थ है - किसी से बाधित न होने वाला किसी सेन रुकने वाला । ज्ञान, दर्शन के धारक को ज्ञानदर्शनघर कहते हैं । तब भगवान् महावीर स्वामी अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारण करने वाले थे, यह अर्थ फलित हुआ । २९–व्यावृत्तछन – छद्म शब्द के -१ - आवरण, और २ – छत, ऐसे दो अर्थ होते हैं । ज्ञानावरणीय आदि चार घातक कर्म आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि मूल शक्तियों को छादन किए अर्थात् Ch हुए रहते हैं, इस लिये वे छद्म कहलाते हैं । जो छद्म से अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि चार घातक कर्मों से तथा छल से अलग हो गया है, उसे व्यावृत्तछद्म कहते हैं । भगवान् महावीर छद्म से रहित थे । ३० - जिन- - राग और द्व ेष आदि श्रात्मसम्बन्धी शत्रुओं को पराजित करने वाला, उन का दमन करने वाला जिन कहलाता है । - ३१ - ज्ञायक – सम्यक् प्रकार से जानने वाला ज्ञायक कहलाता है । तात्पर्य यह है कि भगवान् राग आदि विकारों के स्वरूप को जानने वाले थे । रागादि विकारों को जान कर ही जीता जा सकता है। I कहीं - - जावपणं - ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है । जापक का अर्थ है - जिताने वाला । अर्थात् भगवान् स्वयं भी रागद्व ेषादि को जीतने वाले थे और दूसरों को भी जिताने वाले थे । ३२ - तीर्ण-जो स्वयं संसार सागर से तर गया है, वह तीर्ण कहलाता है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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