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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित। ......... [५३९ उववज्जिहिति-उत्पन्न होगी ? । मूलार्थ -भगवन् ! अजूदेवी यहां से कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर, काल कर के कहां जायेगी ? और कहां पर उत्पन्न होगी? । टीका -वधमाननरेश विजयमित्र के अशोकवाटिका के निकट जाते हुए गौतम स्वामी ने जो एक स्त्री का दयनीय दृश्य देखा था, तथा उस से उन के मन में उस के पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त को जानने के जो संकल्प उत्पन्न हुए थे, उन की पूर्ति हो जाने पर वे बड़े गद्गद हुए और फिर उन्हों ने भगवान् से उस के आगामी भवों के सम्बन्ध में पूछना प्रारम्भ किया। वे बोले -भदन्त ! अजूश्री यहां से मर कर कहां जायेगी ? और कहां उत्पन्न होगी ?, तात्पर्य यह है कि अञ्जूश्री इसी भान्ति संसार में घटीयन्त्र की तरह जन्म मरण के चक्र' में पड़ी रहेगी या इस का कहीं उद्धार भी होगा ?, इस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया, अब सूत्रकार उस का उल्लेख करते हैं - मूल -२ गोतमा ? अंजू णं देवो बहूई वासाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववज्जिहिइ । एवं संसारो जहा पढ़मो तहा णेयव्वं जाव वणस्सति । सा णं ततो अणंतर उबट्टित्ता सम्वोभद्द गरे मयूरचाए पच्चायाहिति । से णं तत्थ साउणिएहिं वधिते समाणे तत्थेव सव्वोभद्दे णगरे सेडिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति । सेणं तत्य उम्मुवालमावे. तहारूवाणं थेराणं अतिए केवलं बोहिं बुझिहिति । पवज्जा० । सोहम्मे । ततो देवलोगाओ पाउखएणं कहिं गच्छिहिति ?, कहिं उववज्जिहिति ? गोतमा ! महाविदेहे जहा पढमे जाव सिज्झिहिति जाव अतं काहिति । एवं खलु जम्ब ? समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयम? पएणचे। सेवं भंते !, सेवं भंते! । ॥ दुहविवागेसु दससु अझयणेसु पढमो सुयक्खंधो समत्तो ॥ (१) अहो ! संसारकूपेऽस्मिन् जीवाः कुर्वन्ति कर्मभिः । अरघघटीन्यायेन एहिरेयाहिरां क्रियाम् ॥१॥ अर्थात् अाश्चर्य है कि इस संसाररूप कूप में जीव (प्राणी ) कर्मों के द्वारा अरघट्टघटी-न्याय के अनुसार गमनागमन की क्रिया करते रहते हैं । .(२) छाया-गौतम ! अर्देवी नवतिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकतयोपपत्स्यते, एवं संसारो यथा प्रथम: तथा ज्ञातव्यो यावद् वनस्पति० । सा ततोऽनन्तरमुद्धृत्य सर्वतोभद्रे नगरे मयूरतया प्रत्यायास्यति । स तत्र शाकुनिर्हतः सन् तत्रैव सर्वतोभद्रे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । स तत्र उन्मुक्तबालभावः तथारूपाणां स्थविराणामन्ति के केवलं बोधि भोत्स्यते प्रवज्या० । सौधर्म । ततो देवलोकाद् आयुःक्षयेण कुत्र गमिष्यति ?, कुत्रोपपत्स्यते ? । गौतम ! महाविदेहे यथा प्रथम: यावत् सेत्स्यति, यावद् अन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दुःखविपाकानां दशमस्याध्ययनस्यायमर्थ: प्रज्ञप्त: । तदेवं भदन्त !, तदेवं भदन्त ! । ॥ दुःखविपाकेषु दशस्वध्ययनेषु प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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