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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५३८] श्री विपाक सूत्र . [ दशम अध्याय मानवोचित सांसारिक वैभव का उस ने यथेष्ट उपभोग किया, परन्तु आज उस के वे शुभ कर्म फल देकर प्रायः समाप्त हो गये। अब उन की जगह अशुभ कर्मों ने लेली है। उन के फलस्वरूप वह एक तीव्र वेदना का अनुभव कर रही है। योनिशल के पीड़ा ने उस के शरीर को सुखा कर अस्थिपंजर मात्र बना दिया। उस के शरीर की समस्त कान्ति सर्वथा लुप्त हो गई । वह शूलजन्य असह्य वेदना से व्याकुल हुई २ रात दिन निरन्तर विलाप करती रहती है। महाराज विजयमित्र ने उस की चिकित्सा के लिये नगर के अनेक अनुभवी चिकित्सको, निपुण वैद्यों को बुलाया और उन्हों ने भी अपने बुद्धि बल से अनेक प्रकार के शास्त्रीय प्रयोगों द्वारा उसे उपशान्त करने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु वे सब विफल ही रहे । किसी के भी उपचार से कुछ न बना । अन्त में हताश हो कर उन वैद्यों को भी वापिस जाना पड़ा। यह है अशुभ कर्म के उदय का प्रभाव, जिस के आगे सभी प्रकार के आनुभविक उपाय भी निष्फल निकले। श्रमण भगवान् महावीर फरमाने लगे कि गौतम ! तुम ने महाराज विजयमित्र की अशोकवाटिका के समीप आन्तरिक वेदना से दुःखो होकर विलाप करती हुई जिस स्त्री को देखा था वह यही अंजूश्री है, जो कि अपने पूर्वोपार्जित अशभ कर्मों के कारण दु:खमय विपाक का अनुभव कर रही है। -सिघा. जाव एवं-यहां पठित जाव-यावत् पद-दुग-तिय-चउक्क-चच्चरमहापह-पहेसु महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा-इन पदों का तथा-वेज्जे वा ६ - यहां का अङ्क-वेज्जपुत्तो वा जाणो वा जाणयपुत्तो वा तेइच्छिओ वा तेइच्छियपुत्तो वा-इन पदों का परिचायक है । इन पदों का अर्थ पृष्ठ ६५ तथा ६६ पर लिखा जा चुका है। -जाव उग्घोसंति-यहां का जाव -यावत् पद-अजए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तते, तस्स णं विजए राया विउलं अत्थसंपयाणं दलयति, दोच्च पितच्चं पि उग्घोसेह उग्घोसित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणेह । तते णं ते कोडुबिया पुरिसा, एयमटुं करयलपरिग्गहियं मत्थए दसणहं अंजलिं कटु पडिसुणेति पडिसुणिता वद्वमानपुरे सिंघाडग० जाव पहेसु महया २ सद्देणं एवं खलु देवाणुप्पिया! अंजए देवीए जोणिसूले पाउन्भूते, तं जो णं इच्छति वेज्जो वा ६ अंजए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तते, तस्स णं विजए राया विउल अत्थसंपयाणं दलयति त्ति- इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है। -उत्पत्तियाहिं ४ बुद्धिहिं- यहां के अक से अभिमत अवशिष्ट वैनयिकी आदि तीन बुद्धियों की सूचना अष्टमाध्याय के पृष्ठ ४५९ पर की जा चुकी है। तथा-श्रान्त, तान्त और परितान्त पदों का अर्थ पृष्ठ ७३ पर, तथा-शुष्का-इत्यादि पदों का अर्थ पीछे पृष्ठ ४३१ पर, तथा -पुरा जाव विहरति- यहां के जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों का विवरण पृष्ठ २७१ पर किया जा चुका अञ्जूश्री के जीवनवृत्तान्त का श्रवण कर और उसके शरीरगत रोग को असाध्य जान कर मृत्यु के अनन्तर उस का क्या बनेगा १, इस जिज्ञासा को ले कर गौतम स्वामी प्रभु से फिर कहते हैं - मूल-२ अंजू णं भते ! देवी इअो कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ?, कहिं उववजिहिति ।। पदार्थ-भंते! हे भगवन् ! । अंजू णं देवी-अजूदेवी । इनो- यहां से । कालमाने-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके । कहिं-कहां । गच्छिहिति ?-- जायेगी। । कहि-कहां पर । (१) अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त तथा पुरुषवर्णन में उपन्यस्त हैं। (२) छाया- अञ्जूः भदन्त ! देवी इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ।, कुत्र उपपत्स्यते ।। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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