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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र-- [दशम अध्याय अन्तर्गत भरतक्षेत्र में अर्थात् भारत वर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक नगर था, वहां पर महाराज इन्द्रदत्त का शासन था । वह प्रजा का बड़ा ही हितचिन्तक अोर न्यायशील राजा था । इस के शासन में प्रजा को हर एक प्रकार से सुख तथा शान्ति प्राप्त थी। उसो इन्द्रपुर में पृवित्रोश्रो नाम की एक गणिका रहती थी । वह कामशास्त्र की विदुषी, अनेक कलाओं में निपुण, बहुत सी भाषाओं की जानकार और शृङ्गार की विशेषज्ञा थी। इस के अतिरिक्त नृत्य और संगीत कला में भी वह अद्वितीय थी। इसी कला के प्रभाव से वह राजमान्य हो गई थी । हज़ारों वेश्याएं उस के शासन में रहती थीं। उस का रूप लावण्य तथा शारीरिक सौन्दर्य एवं कलाकौशल्य उस के पृथिवीश्री नाम को सार्थक कर रहा था । पृथिवीश्री अपने शारीरिक सौन्दय तथा कलाप्रदर्शन के द्वारा नगर के अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति - आदि धनी मानी युवकों को अपनी ओर आकर्षित किये हुए थी। किसी को सौन्दर्य से, किसी को कला से और किसी को विलक्षण हावभाव से वह अपने वश में करने के लिए सिद्धहस्त थी, और जो कोई इन से बच जाता उसे वशीकरणसम्बन्धी चूर्णादि के प्रक्षेप से अपने वश में कर लेती। इस प्रकार नगर के रूप तथा यौवन सम्पन्न धनी मानी गृहस्थों के सहवास से वह मनुष्यसम्बन्धी उदारप्रधान विषयभोगों का यथेष्ट उपभोग करती हुई सांसारिक सुखों का अनुभव कर रही थी। वशीकरण के लिये अमुक प्रकार के द्रव्यों का मंत्रोच्चारणपूर्वक या बिना मंत्र के जो सम्मेलन किया जाता है, उसे चूर्ण कहते हैं । इस वशीकरणचूर्ण का जिस व्यक्ति पर प्रक्षेप किया जाता है अथवा जिसे खिलाया जाता है, वह प्रक्षेप करने या खिलाने वाले के वश में हो जाता है। इस प्रकार के २वशीकरणचूण उस समय बनते या बनाये जाते थे और उनका प्रयोग भी किया जाता था, यह प्रस्तुत सूत्रपाठ से अनायास ही सिद्ध हो जाता है। पृथिवीश्री नामक की वेश्या ने काममूलक विषयवासना की पूर्ति के लिए गुप्त और प्रकट रूप में जितना भी पापपुज एकत्रित किया, उसी के परिणामस्वरूप वह छठी नरक में गई और उस ने वहां नरकगत वेदनाओं का उपभोग किया। प्रश्न - यह ठीक है कि मैथुन से मनुष्य के शरीर में अवस्थित सारभूत पदार्थ वीर्य का क्षय होता (१) भरतक्षत्र अर्ध चन्द्रमा के आकार का है। उसके तीन तरफ़ लवण समुद्र और उत्तर में चुल्ल हिमवन्त पर्वत हैं अर्थात् लवण समुद्र और चल्लाहमवंतपर्वत से उस की हद बंधी है : भरत के मध्य में वैताढ्य पर्वत है, और उस से दो भाग होते हैं । वैताढ्य की दक्षिण तरफ़ का दक्षिणार्ध भरत और उत्तर की तरफ़ का उत्तरार्द्ध भरत कहलाता है। चुल्ल हिमवन्त के ऊपर से निकलने वाली गंगा और सिन्धु नदी वैताग्य की गुफाओं में से निकल कर लवण समुद्र में मिलती हैं, इससे भरत के छः विभाग हो जाते हैं। इन छः विभागों में साम्राज्य प्राप्त करने वाला व्यक्ति चक्रवर्ती कहलाता है । तीर्थ कर वगरह दक्षिणाधे के मध्य खण्ड में होते अर्धमागधी कोष) (२) तान्त्रिकग्रन्थों में स्त्रीवशीकरण, पुरुषवशीकरण और राजवशीकरण आदि अनेकविध प्रयोगों का उल्लेख है। उन में केवल मंत्रों, केवल तंत्रों ओर मंत्रपूर्वक तंत्रों के भिन्न भिन्न प्रकार वर्णित हैं, परन्तु सामान्यरूप से इस के दो प्रकार होते हैं । प्रथम यह कि इस का प्रयोग दैविकशक्ति को धारण करता है। इस प्रयोग से जो भी कुछ होता है वह देवबल से होता है अर्थात् देवता के प्रभाव से होता है । इस मान्यता के अनुसार इस का प्रयोग वही कर सकता है जिस के वश में दैविक शक्ति हो। दूसरी मान्यता यह है कि इस का प्रयोग करने वाला ऐसे पुद्गलों ---परमाणु प्रों का संग्रह करता है कि जिन में आकर्षण शक्ति प्रधान होती है, और उन के प्रयोग से जिस पर कि प्रयोग होता है वह दास की तरह आज्ञाकारी तथा अनुकूल हो जाता है । प्रथम में देवदृष्टि को प्राधान्य प्राप्त है और दूसरे में मात्र आकर्षक परमाणुत्रों का प्रभाव है । इस में देवदृष्टि को कोई स्थान नहीं। . For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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