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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ५३१ 1 पृथिवीश्री नामक । गणिया - गणिका । एयकम्मा ४- एतत्कर्मा', एतद्विद्य, एतत्प्रधान और एतत्समाचार बनी हुई। सुबहु - अत्यधिक । पावं - पाप । कम्मं - कर्म का । समज्जिखित्ता-उपार्जन कर । पतीसं वाससताई १- ३५ सौ वर्ष की । परमाउं - परम आयु को पालइत्ता - पाल कर भोग कर । कालमासे - कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर । कालं किच्चा काल करके । छट्ठीर छठी पुढवीप - पृथिवीनरक में । उक्को से ं० - जिन की उत्कृष्ट स्थिति २२ सागरोपम की है, ऐसे नारकियों में । रइयत्ताए - नारकी रूप से । उववन्ना - उत्पन्न हुई । साणं-वह । तत्रो - वहां से । उव्वहित्ता – निकल कर । - इसी । वज्रमाणे - वर्धमान । गगरे- - नगर में । धणेदवस्स - धनदेव । सत्थवाहस्स - सार्थवाह की। पिभारिया - प्रियंगू नामक भार्या की । कुच्छिसिं कुक्षि- उदर में । दायित्ताए – कन्या रूप से । उववन्ना - उत्पन्न हुई । तते गं - तदनन्तर । सा - उस । पिवंगू भारिया - प्रियंगुभार्या के । इव -- वराहं नौ | मासाणं - मास । बहुपडिपुराणाणं - लगभग परिपूर्ण होने पर । दारियं दारिका बालिका का । पयाया -- जन्म हुआ, उस का । नामं नाम । अंजू सिरी - अज्जूश्री रक्खा गया । सेसं-शेष । जहा - जैसे । देवदत्तार - देवदत्ता का वर्णन किया गया है, वैसे ही जानना । तते गं - तदनन्तर । से- वह । विजए - विजय मित्र । राया - राजा । श्रसवा० - अश्ववाहनिका - अश्वक्रीड़ा के लिए गमन करता हुआ । जहेव – जैसे । वेलमणदत्ते - वैश्रमणदत्त । तहेव - उसी भान्ति । अंजु - अंजुश्री को । पासति - देखता है । णवरं - उस में इतनी विशेषता है कि वह उसे । अपणो - अपने । अट्ठार - लिये । वरेति - मांगता है । जहा - जिस प्रकार | तेतली - तेतलि । जाव - यावत् । अजूर - अंजूश्री नामक । दारियाए - बालिका के । सद्धिं - - साथ, ( महलों के ) । उष्पिं ऊपर | जाव - यावत् । विहरति - विहरण करने लगा । 1 मूलार्थ - गौतम ! इस प्रकार निश्चय ही उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था। वहां इन्द्रदत्त नाम का राजा राज्य किया करता था। नगर में पृथिवीश्री नाम की एक गणिका - वेश्या रहती थी । उस का वन पूर्ववर्णित कामवजा वेश्या की भान्ति जान लेना चाहिए। इन्द्रपुर नगर में वह गरिएका अनेक ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह श्रादि लोगों को चूर्णादि के प्रयोगों से वश में करके मनुष्यसम्बन्धी उदार - मनोज्ञ कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करती हुई आनन्दपूर्वक समय बिता रही थी। तदनन्तर एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य, तथा एतत् समाचार वह पृथिवी श्री वेश्या अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर ३५ सौ वर्ष की परम आयु भोग का कलमास में काल करके छठी नरक के २२ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकियों के मध्य में नारकीय रूप से उत्पन्न हुई। वहां से निकल कर वह इसी वर्धमानपुर नगर के धनदेव नामक सार्थ वाह की प्रियं भार्या के उदर में कन्यारूप से उत्पन्न हुई अर्थात् कन्यारूप से गर्भ में आई । तदनन्तर उस प्रियं भार्या ने नत्र मास पूरे होने पर कन्या को जन्म दिया और उस का अंजूश्री नाम रक्खा । उस का शेव वर्णन देवदत्ता की तरह जानना । तदनन्तर महाराज विजयमित्र अश्वक्रीडा के निमित्त जाते हुए वैश्रमण दत्त को भान्ति ही अंजूओ को देखते हैं और तेतलि की तरह उसे अपने लिए मांगते हैं, यावत् वे अज्जो के साथ नत प्रासाद में यावत् सानन्द विहरण करते हैं । टीका- गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में उन के द्वारा देखी हुई स्त्री के पूर्वभवसम्बन्धी जीवन-वृत्तान्त का श्रारम्भ करते हुए श्रमण भगवान् महावीर बोले कि - गौतम ! बहुत पुरानी बात है, इसी जम्बूद्वीप के (१) एतत्कर्मा एतद्विद्य श्रादि पदों का अर्थ पृष्ठ १७९ की टिप्पण में दिया जा चुका है । For Private And Personal Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir -
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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