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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राक्कथन इस के अतिरिक्त जो दंड देने का सामथ्य रखता है, उस में अपराध रोकने की शक्ति भी होनी चाहिये । यदि किसी शासक में यह बल है कि डाकुओं के दल को, उस के अपराध के दंडस्वरूप कारागृह (जेल) में बन्द कर सकता है अथवा प्राणदंड दे सकता है तो उस शासक में यह भी शक्ति होती है कि यदि उस को यह ज्ञात हो जावे कि डाकुओं का दल अमुक घर में अमुक समय पर डाका डाल कर धनापहरण एवं गृहवासियों की हत्या करेगा तो डाका डालने से पहले ही उन २ डाकुओं के दल को पुलिस अथवा सेना के द्वारा डाका डालने के महान अपराध से रोके । कर्मफलप्रदाता ईश्वर तो सर्वशक्तिसम्पन्न, दयालु, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी है । वह जानता है कि कौन क्या अपराध करेगा ? तब उसे चाहिये कि अपराध करने वाले की भावना बदल दे अथवा उसके मार्ग में ऐसी बाधाएं उपस्थित करदे कि जिस से वह अपराध कर ही न सके । यदि वह अपराध करने वाले के इरादे को जानता है और अपराध रोकने का सामर्थ्य भी रखता है परन्तु रोकता नहीं, अपराध करने देता है, और फिर अपराध के फलस्वरूप उसे दंड देता है तो उस को दयाल वा न्यायी नहीं कहा जासकता, उसे तो स्वेच्छाचारी और कर्तव्यविमुख ही कहना होगा । ७-संसार में अनन्त जीव हैं । प्रत्येक जीव मन, वचन और काया से प्रतिक्षण कुछ न कुछ कार्य करता ही रहता है । क्षण २ को क्रियाओं का इतिहास लिखना एवं उनका फल देना यदि असंभव नहीं तो अत्यन्त दुष्कर अवश्य है । जब एक जीव के क्षण २ के कार्य का व्योरा रखना एवं उस का फल देना इतना कठिन है तो संसार के अनन्त जीवां की क्षण २ क्रियाओं का व्यारा रखना एवं उन का फल देना, उस विशेष चेतन व्यक्ति के लिये कैसे सम्भव होगा ? इस के अतिरिक्त संसार के अनन्त जीवों के क्षण २ में कृतकर्मों के फल देने में लगे रहने से उस विशेष चेतन व्यक्ति का चित्त कितना चिन्तित या व्यथित होगा और वह कैसे शान्ति और अपने आनन्दस्वरूप में मग्न रह सकेगा? इन प्रश्नों का कोई सन्तापजनक उत्तर समझ में नहीं आता । ऊपर के ऊहापोह से यह निश्चित हो जाता है कि जीवों के कर्मफल भुगताने में ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं है । प्रत्युत कर्म स्वतः ही फलप्रदान कर डालता है । जैनेतर धमशास्त्र भी इस तथ्य का पूरा २ समर्थन करते हैं। भगवद्गीता में लिखा है न कतत्वं न कमोणि लोकस्य सृजति प्रमुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (अ० ५।१४) अर्थात् ईश्वर न तो सृष्टि बनाता है और न कर्म ही रचता है और न कर्मों के फल को ही देता है । प्रकृति ही सब कुछ करती है । तात्पर्य यह है कि जो जैसा करता है वह वैसा फल पा लेता है। नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृत ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।। (अ० ५।१५) अर्थात् ईश्वर किसी का न तो पाप लेता है तथा न किसी का पुण्य ही लेता है । अज्ञान से आवृत होने के कारण जीव स्वयं मोह में फंस जाते हैं। सारांश यह है कि कर्म फलप्रदाता ईश्वर नहीं है, इस तथ्य के पोषक अनेकों प्रवचन शास्त्र For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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