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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन हिन्दीभाषाटीकासहित आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लग जाते हैं। इस के विपरीत यदि कोई शासक लोभी हो, कामी हो, कर्तव्यपालन की भावना से शून्य हो उस के शासन में अनेकविध उपद्रव होते हैं और सर्वतोमुखी अराजकता का प्रसार होता है, लोग दुःख के मारे त्राहि २ कर उठते हैं। स्वर्गतुल्य जीवन भी नारकीय बन जाता है, ऐसा संसार में देखा जाता है । परन्तु यह समझ में नहीं आता जब कि संसार का शासक ईश्वर दयालु भी है, सर्वज्ञ भी है तथा सर्वदर्शी भी है, फिर भी संसार में बुराई कम नहीं होने पाती। मांसाहारियों, व्यभिचारियों और चोरों आदि लोगों का आधिक्य ही दृष्टिगोचर होता है। धर्मियों की संख्या बहुत कम मिलती है। ऐसी दशा में प्रथम तो ईश्वर संसार का शासक है ही नहीं यह ही कहना होगा । यदि तुष्यतु दर्जनन्याय-से मान भी लें तो वह कोई योग्य शासक नहीं कहा जा सकता और वह ईश्वरत्व से सर्वथा शून्य एवं कल्पनामात्र है। ६-जो लोग ईश्वर को न्यायाधीश के तुल्य बतलाते हैं और कहते हैं कि जैसे न्यायाधीश अपराधियों को उन के अपराधानुसार दण्डित करता है, उसी भाँति ईश्वर भी संसार की व्यवस्था को भंग नहीं होने देता और यदि कोई व्यवस्था भंग करता है तो उसे तदनुसार दण्ड देता है । इस का समाधान निम्नोक्त है सब से प्रथम अपराधी को दंड देने में क्या हार्द रहा हुआ है ? यह जान लेना आवश्यक है । देखिये-जब कोई मनुष्य चोरी करता है तो उस पर राज्य की ओर से अभियोग चलाया जाता है। यह प्रमाणित होने पर कि उस व्यक्ति ने चोरी की है, तो न्यायाधीश उस को कारागार, जुर्माना आदि का उपयुक्त दंड देता है । वह अपराधी व्यक्ति तथा अन्य लोग यह जान जाते हैं कि उस व्यक्ति ने चोरी की थी, इसलिये उस को दंड मिला है । चोरी का अपराध तथा उसके फलस्वरूप दंड का ज्ञान होने पर वह व्यक्ति एवं साधारण जनता डर जाती है और चारी आदि कुवृत्तियों का साहस नहीं करती । यही उद्देश्य दण्ड देने में रहा हुआ है । परन्तु यदि किसी देश का शासक या न्यायाधीश किसी व्यक्ति को पकड़वा कर कारागार में डाल दे और उस पर न तो अभियोग चलावे, न यही प्रकट करे कि उसने क्या अपराध किया है ? ऐसी दशा में जनता उस व्यक्ति को निर्दोष एवं उस शासक वा न्यायाधीश को अन्यायी, स्वेच्छाचारी समझेगी। अपराध एवं उसके फलस्वरूप दंड का ज्ञान न होने से जनता कभी भी उस व्यवस्था से शिक्षित नहीं हो सकेगी, और नाहि वह अपराध करने से डरेगी। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति मनुष्ययोनि में जन्म लेता है और जन्म से ही अन्धा, पंगु आदि दूपित शरीर धारण करता है, तो उस व्यक्ति, उस के सम्बन्धी एवं उस के देशवासियों को वह ज्ञात नहीं होगा कि उस व्यक्ति के जीव ने पूर्वजन्म में अमुक पापकर्म किया था, जिस के फलस्वरूप उस को इस जन्म में यह दूषित शरीर मिला है। इसी प्रकार जब किसी मनुष्य के शरीर में कुष्ठ आदि रोग हो जाता है तो उस व्यक्ति या अन्य मनुष्यों को यह ज्ञात नहीं होता कि उस ने अमुक २ पापकर्म पूर्व या इस जन्म में किये हैं, जिन के कारण इन की यह दुरवस्था हो रही है । इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि दण्ड देने का यह अभिप्राय कि मनुष्य को उस के पापकर्म का ऐसा कठोर दंड दिया जाये कि जिस से वह स्वयं तथा जनसमाज ऐसा भयभीत हो जावे कि डर कर भविष्य में उस पापकर्म को न करे-मनुष्य के दैनिक कार्यों से नहीं पाया जाता । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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