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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२६] श्री विपाक सूत्र [दशम अध्याय नरतन सम नहिं कविनिउ देही, जोव चराचर जाचत जेही। बड़े भाग मानुष तन पापा, सुरदुर्लभ सब प्रथन गावा॥ (तुलसीदास) दुर्लभ मानव जन्म है, देह न वारम्वार । तरवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ (कबीर वाणी) जो फरिश्ते करते हैं, कर सकता है इन्सान भी। पर फरिश्तों से न हो जो काम है इन्सान का ।। फरिश्ते से बेहतर है इन्लान बनना, मगर इस में पड़ती है मेहनत ज्यादा । इत्यादि अनेकों प्रवचन उपलब्ध होते हैं, जिन से मानव जीवन की दुर्लभता एवं महानता सुतरां प्रमाणित हो जाती है । इस के अतिरिक्त जैन शास्त्रों में मानव जीवन की दुलमता का निरूपण बड़े विलक्षण दश दृष्टान्तों द्वारा किया गया है, जिन का विस्तारभय से प्रस्तुन में उल्लेख नहीं किया जा रहा है। ऊपर के विवेचन में यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव का जन्म दुर्लभ है, महान् है। अतः प्रत्येक मानव का कर्तव्य हो जाता है कि इस अनमोल और देवदुर्लभ मनुष्यभव को प्राप्त कर इस से सुगतिमूलक लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिये, और प्रात्मश्रेष सावना चाहिये परन्तु इस के विपरीत जो लोग जीवन को पतन की और ले जाने वाले कृत्यों में मग्न रहते हैं तथा सुकृत्यों से दूर भाग कर असदनुष्ठानों में प्रवृत्त रहते हैं, वे दुर्गतियों में अनेकानेक दुःख भोगने के साथ २ जन्म मरण के प्रवाह में प्रवाहित होते रहते हैं, ऐसे प्राणी अनेकों हैं, उन में से अजूश्री नामक एक नारो भो है, जिस ने पृथिवीश्री गणिका के भव में अपने देवदर्लभ मानव जीवन को विषय-वासना के पोषण में ही अधिकाधिक लगाया और अनेकानेक चूर्णादि के प्रयोगों द्वारा राजा, ईश्वर आदि लोगों को वरा में ला कर उन्हें दुराचार के पथ का पथिक बनाया, एवं अपनी वासनामूलक कुत्सित भावनाओं से जन्म मरण रूपी वृक्ष को अधिकाधिक पुष्पित एवं पल्लवित किया प्रस्तुत दशम अध्ययन में उसी अंजू देवी का जीवन वणित हुआ है, जिस का आदिम सूत्र निम्नोक्त है मल-दसम्स्स उक्खेवो, एवं खल जंबू ! तेणं कालेणं २ बद्धपाणपुरे णाम णगरे होत्था । विजयवड्ढमाणे उज्जाणे । माणिभद्दे जक्खे विजयमित्ते राया । तत्थ णं धदेवा णामं सत्थवाहे हात्था अड्ढे ० । पियंगू भारिया । अंजू दारिया जाव सरीरा । समासरणं । परिसा जाव गयो । तेणं कालेणं २ जे? जाव अडमाणे विजयमित्तस्स रगणो गिहस्स असोगवणि याए अदरसामंतेणं वीहवयमाणे पासति एग इत्थियं सुक्खं भुक्खं निम्मंसं किडिकिडियाभूयं अट्ठि वम्मावणद्ध गोलसाडगनियत्थं कट्ठाई कलुणाई वीसराई कूवमाणि (१) छाया-दशमस्मोत्क्षेपः । एवं खनु जम्बू ! तस्मिन् काले २ वर्षमान पुरं नाम नगरमभूत् । विजयवर्धमानमुद्यानम् । माणिभद्रो यक्षः । विजय मित्रो राजा । तत्र धनदेवो नाम सार्थवाहोऽभूदा ढ्यः । प्रियंगू: भार्या । अञ्जू : दारिका यावत् शरीरा । समवसरणम् । परिषद् यावद् गता । तस्मिन् काले २ ज्येष्ठो यावद् अटन् विजयमित्रस्य राज्ञो गृहस्याशोकवनिकाया, अदूरासन्ने व्यतिव्रजन् पश्यत्येकां स्त्रियं शुष्कां वुभुक्षितां निर्मासां किटिकिटिभूतां चौवनद्धां नीलशाटकनिवसितां कष्टानि करुणानि विस्वराणि कूजन्तीं दृष्ट्वा चिन्ता । तथैव यावदेवमवादीत् – सा भदन्त ! स्त्री पूर्व वे कासीद् ? व्याकरणम । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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