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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२४] श्री विपाक सूत्र अध्याय -संसारो तहेव जाव वणस्सइ०- यहां पठित संसार शब्द-संसारभ्रमण. इस अर्थ का बोधक है। तथा -तहेव-तथैव पद वैसे ही अर्थात् जिस तरह प्रथम अध्ययन में राजकुमार मृगापुत्र का संसारभ्रमण वर्णित कर चुके हैं. वैसे ही देवदत्ता का भी संसारभ्रमण समझ लेना -- इन भावों का परिचायक है। उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से बोधित किया गया है, अर्थात् जाव-यावत् पद पृष्ठ ८९ पर पढ़े गए - सा णं ततो अणंतरं उघटित्ता सरीसवेसु उवज्जिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा - से ले कर - तेइन्दिएसु, बेइन्दिएसु- यहां तक के पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां पर मृगापुत्र का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता का। तया - वण स्सइ०- यहां के बिन्दु से-कइयरुक्खेसु कडुयदृद्धिएसु अणेगमतसहस्सक्खुत्तो उववज्जिहिति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये। अर्थात् निम्बादि तथा कटु दुग्ध वाली अकादि वनस्पति में लाखों वार जन्म मरण किया जायेगा । तथा "-सेहि वोहिं. सोहम्मे महाविदेहे० सिज्झिहिति ५.. " इन पदों में संठ्ठि - यहां के बिन्दु से ---- कुलंसि पुत्तताए पच्चायाहिति-इन पदों का ग्रहण करना अभिमत है । तथा बोहिं० - आदि पा से विवक्षित पाठ पृष्ठ ३१२ पर लिखा जा चुका है। पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह बतलाया गया था कि श्री जम्बू स्वामी ने अपने परम पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से दुःखविपाक सूत्र के अष्टमाध्ययन को सुनने के अनन्तर नवम अध्ययन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस पर श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें नवम अध्ययन सुनाना प्रारम्भ किया था। उस अध्ययन की समाप्ति पर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू अनगार से जो कुछ फ़रमाया, उसे सूत्रकार ने “निश्खेत्रो" इस पद से अभिव्यक्त किया है । निक्खेव का संस्कृत प्रतिरूप निक्षेप होता है । निक्षेप का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । प्रस्तुत में निक्षेपशब्द से संसूचित सूत्रांश निम्नोक्त है एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं नवमस्त अझयणस्स अयम? पराणत्त त्ति बेमि । अर्थात् --हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के नवम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। सारांश यह है कि भगवान् महावीर ने अनगार गौतम स्वामी के प्रति जो देवदत्ता का आद्योपान्त जीवनवृत्तान्त सुनाया है, यही नवम अध्ययन का अर्थ है, जिस का वर्णन मैं अभी तुम्हारे समक्ष कर चुका हूं, परन्तु इसमें इतना ध्यान रहे कि यह जो कुछ भी मैंने तुम को सुनाता है, वह मैंने वीर प्रभु से सुना हुअा ही सुनाया है, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं । प्रस्तुत अध्ययन में विषयासक्ति के दुष्परिणाम का दिग्दर्शन कराया गया है। कामासक्त व्यक्ति पतन की ओर कितनी शोघ्रता से बढ़ता है और किस हद तक अनर्थ करने पर उतारु हो जाता है ? तथा परिणामस्वरूप उसे कितनी भयंकर यातनाएं भोगनी पड़तो हैं ? इत्यादि बातों का इस कथासन्दर्भ में सुचारु रूप से निदर्शन मिलता है । लाखों मनुष्यों पर शासन करने वाला सम्राट भी जघन्य विषयासक्ति से नरकगामी बनता है, तथा रूपलावण्य को राशि एक महारानी भी अपनी अनुचित कामवासना की पूर्ति की कुत्सित भावना से प्रेरित हुई महान् अनर्थ का सम्पादन करके नरकों का आतिथ्य प्राप्त कर लेती है । इस पर से मानव में बढ़ो हुई कामवासना के दुष्परिणाम को देखते हुए उस से निवृत्त होने या पराङमुख रहने की समुचित शिक्षा मिलती है । कामवासना से वासित जीवन वास्तव में मानवजीवन नहीं किन्तु पशुजीवन बल्कि उस से भी गिरा हुअा जीवन होता है, अतः विचारशील पुरुषों को जहां तक बने वहां तक अपने जीवन को संयमित और मर्यादित बनाने का यत्न करते रहना चाहिये, तथा विषयवासनाओं के बढ़े हुए जाल को तोड़ने की ओर अधिक लक्ष्य देना चाहिये, यही इस कथासंदर्भ का ग्रहणीय सार है। ॥ नवम अध्याय समाप्त । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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