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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र |नवम अध्याय - एतण विहाणेण - यहां प्रयुक्त एतद् शब्द का अर्थ पृष्ठ १७८ पर लिखा जा च का है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां यह उज्झितक के दृश्य का बोधक लिखा है जब कि प्रस्तुत में रोहीतक नगर के राजमार्ग पर भगवान् गौतमस्वामी द्वारा अवलोकित शूनी पर भेदन की जाने वाली एक स्त्री के वृत्तान्त का परिचायक है । तथा पुरा जाव विहरति यहां के जाव-यात् पद से विवक्षित पाठ पृष्ठ २७१ पर लिखा जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में देवदत्ता के द्वारा राजमाता को मृत्यु तथा उप के इस कृत्य के दण्डविधान आदि का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार देव दत्ता के ही अग्रिम जीवन का वर्णन करते हैं : मूल- 'देवदत्ता णं भते ! देवी इतो कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति ? कहिं उबब जज हात ? पदार्थ-भंते ! -भगवन् ! । देवदत्ता णं देवी - देवदतादेवी । इतो-यहां से । कालमासेकालमास में अर्थात् मृत्यु का समय जाने पर । कालं-काल । किच्चा - कर के । कहि- कहां । गनिहिति ? - जाएगी । कहिं- कहां पर । स्वज्जिहिति ?- उत्पन्न होगी ?। मूलार्थ-भगवन् ! देवदत्ता देवी यहा से कालमास में काल करक कहां जाएगी ? कहां पर उत्पन्न होगी? टीका-रोहीतक नगर के राजमार्ग पर शस्त्र - अस्त्रों से सन्नद्ध सैनिक पुरुषों के मध्यस्थित अवकोटकवन्धन से बन्धी हुई तथा कर्ण और नासिका जिसको काट ली गई थी, ऐसी शूनी पर चढ़ाई जाने वाली एक वध्य नारी के करुणाजनक दृश्य को देख कर भगवान् गौतमस्वामी के हृदय में जो उसके पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त जानने की इच्छा उत्पन्न हुई, तदनुसार उन्होंने भगवान् महावीर से जो पूछा था उसका उत्तर मिल जाने पर भगवान् गौतम उस स्त्री के आगामी भवों का वृत्तान्त जानने की लालसा से फिर प्रभु वीर से पूछने लगे । वे बोले __ प्रभो! यह देवदत्ता नामक स्त्री यहां से मृत्यु को प्राप्त हो कर कहां जायेगी ? और कहां उत्पन्न होगी? तात्पर्य यह है कि यह इसी भान्ति कर्मजन्य सन्ताप से दुःखोपभोग करती रहेगी, तथा जन्ममरण के प्रवाह में प्रवाहित होती रहेगी, या इस के दुःखों का कहीं अन्त भी होगा ? और कभी संसार सागर से पार भी हो सकेगी ? श्री गौतम स्वामी के द्वारा किये गये प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं - मल - गोतमा ! असीनि वासाई परमाउँ पालयित्ता कालमासे कालं किच्चा इमी ये रयणप्प पाए पुढवीए उववजिहिति । संपारो जाव वणस्लइ० । ततो अणंतरं उच्च दृत्ता गंगापुरे णगरे हंसत्ताए पच्चायाहिति । से णं तत्थ साउणिएहि वहिते समाणे तत्थेव गंगापुरे (१) छाया- देवदत्ता भदन्त ! देवी इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ! कुत्रोपपत्स्यते । (२) छाया-गौतम ! अशीति वर्घाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथव्यामुपपत्स्यते । संसारस्तथैव यावद् वनस्पति० । ततोऽनन्तरमुढत्य गंगापुरे नगरे हसतया प्रत्यायास्यति । स तत्र शाकुनिहतस्तत्रैव गंगापुरे श्रेष्ठ० बोवि० सौधर्म महाविदेहे० सेत्स्यति ५ निक्षेपः । ॥ नवममध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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