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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५१८] श्री विपाक सूत्र नवम अध्याय से अकालमृत्यु का अस्तित्व प्रमाणित होता है, तथा अकालमृत्यु से कालमृत्यु अपने आप ही सिद्ध हो जाती है । तात्पर्य यह है कि काल और अकाल ये दोनों शब्द एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं, एवं एक दूसरे के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं । तब मृत्यु के -कालमृत्यु और अकालमृत्यु ऐसे दो स्वरूप फलित हो जाते हैं । सामान्य रूप से कालमृत्यु का अर्थ अपने समय पर होने वाली मृत्यु है और अकालमृत्यु का व्यवहार नय की अपेक्षा समय के बिना होने वाली मृत्यु है, परन्तु वास्तव में काल और अकाल से क्या अभिप्रेत है ? और उससे सम्बन्ध रखने वाली मृत्यु का क्या विशेष स्वरूप है ?, जिसमें कि दोनों का विभेद स्पष्ट हो ? यह प्रश्न उपस्थित होता है । उस के सम्बन्ध में किया गया विचार निम्नोक्त है आयु दो प्रकार की होती है अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । जो अायु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले ही शीघ्र भोगी जा सके वह अपवर्तनीय और जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से. पहले न भोगी जा सके वह अनपवर्तनीय, अर्थात् जिस का भोगफल बंधकालोन स्थिति-मर्यादा से कम हो वह अपवर्तनीय और जिस का भोगफल उक्त मर्यादा के बराबर ही हो वह अनपवर्तनीय आयु कही जाती है। अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय श्रायु का बन्ध स्वाभाविक नहीं है किन्तु परिणामों के तारतम्य पर अवलम्बित है । भावी जन्म की आयु वर्तमान जन्म में निर्माण की जाती है, उस समय यदि परिणाम मन्द हों तो आयु का बंध शिथिल हो जाता है, जिस से निमित्त मिलने पर बन्धकालीन कालमर्यादा घट जाती है। इसके विपरीत अगर परिणाम तीव्र हों तो आयु का बन्ध गाद हो जाता है, जिससे निमित्त मिलने पर भी बन्धकालीन कालमर्यादा नहीं घटती और न वह एक साथ ही भोगी जा सकती है । जैसे अत्यन्त दृढ़ होकर खड़े हुए पुरुषों की पंक्ति अभेद्य और शिथिल होकर खड़े हुए पुरुषों की पंक्ति भेद्य होती है । अथवा सघन बोए हुए बीजों के पौधे पशुओं के लिये दुष्प्रवेश और विरले २ बोए हुए बीजों के पौधे उनके लिए सुप्रवेश होते है । वैसे ही तीव्र परिणामजनित गाढबन्ध आयु शस्त्र, विष आदि का प्रयोग होने पर भी अपनी नियतकाल - मर्यादा से पहले पूर्ण नहीं होती और मन्द परिणामजनित शिथिल श्रायु उक्त प्रयोग होते ही अपनी नियतकालमर्यादा समाप्त होने के पहले ही अन्तमुहूर्त मात्र में भोग ली जाती है । आयु के इस शीघ्र भोग को ही अपवर्तना या अकालमृत्यु कहते हैं और नियतस्थितिक भोग को अनपवर्तना या कालमृत्यु कहते हैं । अपवर्तनीय आयु सोपक्रम - उपक्रमसहित होती है। तीत्र शस्त्र', तीव्र विष, तीव्र अग्नि आदि जिन निमित्तों से अकालमृत्यु होती है, उन निमित्तों का प्राप्त होना उपक्रम है। ऐसा उपक्रम अपवर्तनीय आयु में अवश्य होता है क्योंकि वह आयु नियम से कालमर्यादा समाप्त होने के पहले ही भोगने के योग्य होती है, परन्तु अनपवतनीय आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दो प्रकार की होती है अर्थात् उस आयु को अकालमृत्यु लाने वाले उक्त निमित्तों का सन्निधान होता भी है और नहीं भी होता, परन्तु उक्त निमित्तों का सन्निधान होने पर भी अनपवतनीय आयु नियत कालमर्यादा के पहले पूर्ण नहीं होती, सारांश यह है कि अपवतनीय (१) श्री स्थानांगसूत्र में आयुभेद के सात कारण लिखे हैं, जो कि निम्नोक्त हैं -सविधे आयुभेदे परात्त तंजहा-१-अज्झवसाणे, २-निमित्त, ३ श्राहारे, ४-वेयणा ५-पराघाते, ६-फासे, ७-आणपागू, सत्तविध भिज्जए श्राउ । (७/३/५६१) अर्थात् ११) अध्यवसान-राग, स्नेह, और भयात्मक अध्यवसाय - संकल्ल, (२) निमित्त - दण्ड, कशा - चाबुक शस्त्र आदि रूप, ३- आहार-अधिक भोजन, ४- वेदना - नेत्र आदि की पीड़ा, ५-पराघातगर्तपात आदि के कारण लगी हुई विशेष चोट, ६-सर्श-सर्प आदि का डसना, ७ -श्वासोश्वास - का रुक जाना, ये सात आयु भेद - नाश के कारण होते हैं। (२) जीवाणं भंते ! किं सोवक्कमाउया, निरुवक्कमाउया? गोयमा ! जीवा सोवक्कमाउया वि निरुवक्कमाउया वि । (भगवती सूत्र शत० २० उद्द. १०) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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