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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महामहिम मुनिराज श्री शालिग्राम जी महाराज [जीवन और साधना की एक झाँकी] --::-- पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय गुरुदेव श्री शालिग्राम जी महाराज का जीवन एक आदर्श जीवन था। पंजाब (पैप्सू ) के भद्दलबड़ गांव में आप का जन्म हुआ था--संवत् १६२४ में । पिता श्री कालूराम जी वैश्य-वंश के मध्यवित्त गृहस्थ थे । माता मीठे स्वभाव की एक मधुरभाषिणी महिला थी। दोनों ही सहज-शांतिमय और छल-प्रपंचहीन जीवन बिताते थे । आर्थिक स्थिति साधारण थी, परन्तु संतोष और धैर्य जैसे अद्वितीय रत्नों के मालिक वे अवश्य थे। कालूराम जी तीन पुत्रों के पिता हुए। हमारे महाराज जी उन में से मझले थे। शैशवकाल में ही 'आप का नाम शालिग्राम पड़ा और समूची श्रायु आप इसी नाम से प्रख्यात रहे । उन दिनों किसे पता था कि आगे चल कर यह बालक एक विरक्त महात्मा के रूप में सर्वत्र प्रसिद्धि प्राप्त करेगा ?--बहुतेरे इस से पथप्रदर्शन पाएंगे ? छः वर्ष की आयु में बालक शालिग्राम को अपने गांव की ही पाठशाला में दाखिल कर दिया गया। विद्याग्रहण करने में आप आरम्भ से ही दत्तचित्त रहे... पहले अक्षराभ्यास, फिर आरंभिक पाठावली का अध्ययन । पढ़ाई का क्रम इस प्रकार आगे चला । शालिग्राम जी बचपन की परिधि पार कर के किशोरावस्था में आ पहुंचे ।। जैसे जैसे उम्र बढ़ती गई, ज्ञान और अनुभूति के दायरे भी उसी तरह बढ़ते गये। शालिग्राम की अन्तर्दृष्टि पाठ्यपुस्तकों अथवा अध्यापकों एवं सहपाठियों तक ही सीमित नहीं रह पायी । वह अपने आप भी बहुत कुछ सोचा करते । प्रकृति उन की उस उच्छखल आयु में भी कोमल ही थी । राह चलते समय यदि कोई कीड़ी पैर के नीचे आ जाती तो शालिग्राम की अन्तरात्मा हाय-हाय कर उठती, स्नायुओं का स्पंदन रुक सा जाता । गाड़ी में जुते बैल की पीठ पर चाबुक पड़ने की आवाज सुनकर उन का हृदय कांपने लगता। अपनी उम्र के दूसरे लड़कों पर मां-बाप की पिटाई पड़ती तो हमारे चरित्रनायक की आंखों के कोर गीले नज़र आते । लड़कों का स्वभाव चंचल होता है-मन चंचल, आंखें चचल, कान और होंठ चंचल, हाथ-पैर चंचल ! दिल और दिमाग़ चंचल ! परन्तु शालिग्राम अपनी चपलताओं पर काबू पा गये थे। इन के मुह से कभी दुर्वाच्य नहीं निकलता था ! खेल के समय भी कुत्ते या बछड़े को या साथी को कंकड़ फेंक कर इन्हों ने कभी मारा नहीं होगा! बुद्धि बड़ी तीव्र थी, पढ़ने में जी खूब लगता था । शेष समय मा-बाप की आज्ञाओं के For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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