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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [नवम अध्याय असणं ४ भोयावेति । सिरीए देवीए एहायाए जाव पायच्छित्ताए जाव जिमियभुत्तुत्तरागयाए ततो पच्छा एहाति वा भुजति वा उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । पुसणंदिकुमारे-कुमार पुष्यनन्दी। देवदत्ताए- देवदत्ता । भारियाए-भार्या के । सदि-साथ । उपि-ऊपर । पासायवरगए - उत्तम महल में ठहरा हुआ । कुमाणेहिं मुयंगमत्थरहिं - बज रहे हैं मृदंग जिन में, ऐसे । वत्तीसइबद्धनाडपहि-३२ प्रकार के नाटकों द्वारा । जाव - यावत् । विहरति विहरण करता है। तते णं -तदनन्तर । से- वह । वेसमणेवैश्रमण । राया - राजा । अन्नया -अन्यदा । कयाइ-कदाचित् -- किसी समय । का नधम्मुणा-कालधम से । संजुत्ते-युक्त हुा-काल कर गया। नोहरणं - निस्सरण - अरथी का निकालना । जाव - यावत् । पसणंदी-पुष्यनन्दी । राया-राजा जाए - बन गया। तते गं तदनन्तर । से-वह । पुसणंदी .. पुष्यनन्दी। राया- राजा। सिरीए-श्री देवीए -देवी का । मायाभत्त-मातृभक्त - यह माता अर्थात् - "मान्यते पूज्यते इति माता-" पूज्या है, इस बुद्धि से भक्त । यावि-भी। होत्था-था। कल्लाकल्लिंप्रतिदिन । जेणेव-जहां। सिरीदेवी-श्री देवी थी । तेणेव-वहां पर । उवागच्छइ २ आता है आकर । सिरीए-श्री। देवीए-देवी के । पायवडणं-पादवन्दन । करेति -करता है, और । सतपागस हस्तपागतेल्लेहि-शतपाक और सहस्त्रपाक अर्थात् एक शत और एक सहस्त्र औषधियों के सम्मिश्रण से बनाये हुए तैलों से । अभंगावेति-मालिश करता है । अहिसुहाए - अस्थि को सुख देने वाले। म स लुहार - मांस को सुखकारी । तयासुहाए-त्वचा को सुखप्रद । गेमसुहार - रोमों को सुखकारी, ऐसी । चउठियहाएचार प्रकार की। संवाहणाए - संवाहना-अंगमर्दन से । संवाहावेति - सुख - शान्ति पहुंचाता है । सुरहिणा-सुरभि-सुगन्धित । गंधवट्टपण - गन्धवर्तक - बटने से । उव्व द्यावेति -- उद्वतन करता है - अर्थात् बटना मलता है । तिहिं उदएहि-तीन प्रकार के उदकों - जलों से । मज्जावेति -- स्नान कराता है । तंजहा-जैसे कि । उसिणोदएणं- उष्ण जल से । सीओदयणं-शीत जल से । गंधोदएणं - सुगधित जल से, तदनन्तर । विउलं - विपुल । असणं ४-चार प्रकार के अशनादिकों का । भोयावेति- भोजन कराता है, इस प्रकार । सिरीए - श्री । देवीर -- देवी के । राहायार. नहा लेने । जाव यावत् । पायच्छित्ताए-अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य कर के । जाव-यावत् । 'जिमियभुत नरागयाए-भोजन के अनन्तर अपने स्थान पर आ चुकने पर और वहां कुल्ली तथा मुखगत लेप को दूर कर परमशुद्ध हो एवं सुखासन पर बैठ जाने पर । तता पच्छा --उस के पीछे से । राहाति वा-स्नान करता है । भुजति - भोजन करता है । उरालाई -उदार - प्रधान । माणुस्त - गाई-मनुष्यसम्बन्धी। भोगभोगाई - भोगभोगो का, अर्थात् मनोज शब्द, रूपादि विषयों का । भुजमाणेउपभोग करता हुआ । विहरति -विहरण करता है। मलार्थ- राजकुमार पुष्यनन्दी श्रेष्ठीपुत्री देवदत्ता के साथ उत्तम प्रामाद में विविध प्रकार के यादा और जिन में मृदंग बज रहे हैं ऐसे ३. प्रकार के नाटकों द्वारा उपगीयमान-प्रशंसित होते हुए यावत् सोनन्द समय बिताने लगे। कुछ समय बाद महाराज श्रमण काजधर्म की प्राप्त हो गये । उन की मृत्यु पर शोकग्रस्त पुष्यनन्दी ने बड़े समारोह के साथ उन का निस्सरण किया यावत् मृतक कर्म कर के प्रजा के अनुरोध से राज्यसिंहासन पर आरूढ हुए, तब से ले कर वे युवराज से राजा बन गये। राजा बनने के अनन्तर पुष्यनन्दी अपनी माता श्री देवी की निरन्तर भक्ति करने लगे । वे (१) इस पद का सविस्तर अर्थ पृष्ठ २२१ पर किया जा चुका है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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