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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन] हिन्दीभाषाटीकासहित (४५) अग्नि है और जहां आग नहीं वहां धूम भी नहीं । इस अन्वयव्यतिरेक रूप व्याप्तिगर्भित (पवतो वह्निमान् अर्थात् यह पर्वत वह्नि-अग्नि वाला है) अनुमान में, महानस सपक्ष और जलद विपक्ष तथा पर्वत पक्ष का अस्तित्व अवस्थित है। उसी प्रकार ईश्वरकर्तृत्व अनुमान में *अन्वयव्यतिरेकरूप से हेतुसाध्य का सम्बन्ध दृष्टिगोचर नहीं होता है ? क्योंकि ईश्वरवादी कोई भी ऐसा स्थान नहीं मानता जहाँ कर्मफल हो और उस में ईश्वर कारण न हो । शब्द प्रमाण भी साधक नहीं हो सकता, क्योंकि अभी तक यह भी सिद्ध नहीं हो सका कि जिस को शब्द प्रमाण कहते हैं, वह स्वयं प्रमाण कहलाने की योग्यता भी रखता है कि नहीं ? तात्पर्य यह है कि ईश्वरभापित होने पर ही शब्द में प्रामाण्य की व्यवस्था हा सकती है परन्तु जब ईश्वर ही प्रसिद्ध है तो तदुपदिष्ट शब्द की प्रामाणिकता सुतरां ही असिद्ध ठहरती है। ईश्वर जीवों को फल किस प्रकार देता है ? यह भी विचारणीय है । वह स्वयं-साक्षात् तो दे नहीं सकता क्योंकि वह निराकार है और यदि वह साकारावस्था में प्रत्यक्षरूपेण कर्मों का फल दे तो इस बात को स्वीकार करने में कौन इन्कार कर सकता है । परन्तु ऐसा तो देखा नहीं जाता। यदि वह राजा आदि के द्वारा जीवों को अपने कर्मों का दण्ड दिलाता है तो ईश्वर के लिये बड़ी आपत्तियां खड़ी हती हैं । मात्र परिचयार्थ कुछ एक नीचे दी जाती हैं १-कदाचित ईश्वर को किसी धनिक के धन को चुरा या लुटा कर उस धनिक के पूर्वकर्म का फल देना अभिमत है, तो ईश्वर इस कार्य को खुद तो आकर करेगा नहीं किन्तु किसी चोर या डाकू से ही वह ऐसा करायेगा तो इस दशा में जिस चोर या डाकू द्वारा ईश्वर ऐसा फल उस को दिलवायेगा, वह चोर ईश्वर की आज्ञा का पालक होने से निर्दीप होगा, फिर उसे दोषी ठहरा कर जो पुलिस पकड़ती है और दण्ड देती है वह ईश्वर के न्याय से बाहिर की बात होगी । यदि उसे भी ईश्वर के न्याय में सम्मिलित कर चोर को चोरी करने की सज़ा पुलिस द्वारा दिलाना आवश्यक समझा जाए तो यह ईश्वर का अच्छा अन्धेर न्याय है कि इधर तो स्वयं धनिक को दण्ड देने के लिये चोर को उस के घर भेजे और फिर पुलिस द्वारा उस चोर को पकड़वादे । क्या यह--चोर से चोरी करने की कहे और शाह से जागने की कहे-इस कहावत के अनुसार ईश्वर में दोगलापन नहीं आ जावेगा ? इसी प्रकार जो ईश्वर ने प्राणदण्ड देने के लिये कसाई, चाण्डाल तथा सिंह आदि जीव पैदा किये हैं, तदनुसार वे प्रतिदिन हजारों जीवों को मार कर उन के कर्मों का फल उन्हें देते हैं, वे भी निर्दोष समझने चाहिये, क्योंकि वे तो ईश्वर की प्रेरणा के अनुसार ही कार्य कर रहे हैं । यदि ईश्वर उन्हें निर्दोष माने तब उस के लिये अन्य सभी जीव जो कि दूसरों को किसी न किसी प्रकार की हानि पहुंचाते हैं, निर्दोष ही होने चाहिये । यदि उन्हें दोषी माने तो महान् अन्याय होगा, क्योंकि राजा की आज्ञानुसार अपराधियों को अपराध का दण्ड देने वाले जेलर, फाँसी लगाने वाले चाण्डाल आदि जव न्याय से निर्दोष माने जाते है तब ___ *साध्यसाधनयोः साहचर्यमन्वयः, तद्भावयोः साहचर्य व्यतिरेकः । अर्थात् साध्य और साधन के साहचर्य को अन्वय कहते हैं और दोनों के अभाव के साहचर्य की व्यतिरेक संज्ञा है। जैसे--जहां २ धूम (साधन) है, वहां २ अग्नि (साध्य), है, जैसे-महानस । इस को अन्वय कहते हैं और जहां वह्नि का अभाव है, वहां धूम का भी अभाव है, यथा-सरोवर । इसे व्यतिरेक कहते हैं। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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