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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (४४) श्री विपाकसूत्र [प्राकथन है । कर्मवाद यह मानता है कि चेतन का सम्बन्ध होने पर ही जड़ कर्म फल देने में समर्थ होता है । कर्मवाद यह भी कहता है कि फल देने के लिये ईश्वररूप चेतन की प्रेरणा को मानने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि सभी जीव चेतन हैं, वे जैसा कार्य करते हैं उस के अनुसार उनकी बुद्धि वैसी ही बन जाती है, जिस से बुरे कर्म के फल की इच्छा न रहने पर भी वे ऐसा कृत्य कर बैठते हैं कि जिस से उनको अपने कर्मानुसार फल मिल जाता है। कर्म करना एक बात है और फल को न चाहना दूसरी बात है । मात्र चाह न होने से कर्म का फल मिलने से रुक नहीं सकता । कारणसामग्री के एकत्रित हो जाने पर कार्य स्वतः ही होना श्रारम्भ हो जाता है। * उदाहरणार्थ एक व्यक्ति मदिरापान करता है और चाहता है कि मुझे बेहोशी न हो तथा कोई व्यक्ति धूप में खड़ा हो कर उष्ण पदार्थों का सेवन करता है और चाहता है कि मुझे प्यास न लगे । ऐसी अवस्था में वह मदिरासेवी तथा आतप और उष्णतासेवी व्यक्ति क्या मूर्च्छा और घाम से बच सकता है ? नहीं । सारांश यह है कि चाहने से कर्मफल नहीं मिलेगा, यह कोई सिद्धान्त नहीं है । इस के अतिरिक्त ईश्वर को किसी भी प्रमाण से कर्मफलप्रदाता सिद्ध नहीं किया जा सकता । प्रत्यक्ष से तो यह प्रसिद्ध है ही, क्योंकि ईश्वर को किसी भी व्यक्ति ने आजतक कर्म फल देते हुए नहीं देखा । अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर कर्मफलदाता सिद्ध नहीं होता । अनुमान के लिये पक्ष, सपक्ष और विपक्ष आदि का निश्चित होना अत्यावश्यक है । कारण कि बिना इसके अनुमान नहीं बनता । यहां पर सपक्ष तो इस लिए नहीं है कि आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा ईश्वर फल देता है । तथा विपक्ष इस लिये नहीं कि ऐसा कोई भी स्थान नहीं है कि जहां ईश्वर कर्मफलप्रदाता न हो और जीव कर्मफल भोगते हों । जिस पक्ष के साथ सपक्ष और विपक्ष न हो वह झूठा होता है । जैसे— जहां २ धूम है वहां २ * एक और उदाहरण लीजिये - जैसे कोई व्यक्ति रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर अस्वास्थ्यकर भोजन करता है तो उस के शरीर में व्याधि उत्पन्न हो जाती है । वह व्यक्ति उस व्याधि का तनिक भी इच्छुक नहीं है । उसकी इच्छा तो यही है कि उसके शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न न हो परन्तु स्वास्थ्यविरुद्ध तथा हानिप्रद भोजन करने का फल व्याधि के रूप में उस को अपनी इच्छा के विरुद्ध भोगना ही पड़ता है । इसी प्रकार मनुष्य को अपने कर्मों का फल अपनी इच्छा के न होते हुए भी भोगना ही पड़ता है । + सन्दिग्धसाध्यवान् पक्षः, यथा -- धूमवच्चे सति हेतौ पर्वतः । निश्चितसाध्यवान् सपक्षः यथा तत्रैव महानसम् । निश्चितसाध्याभाववान् विपक्ष:- :-यथा तत्रैव महाहृदः। (तर्कसंग्रहः) अर्थात् जिस में साध्य का सन्देह हो उसे पक्ष कहते हैं । जैसे - धूमहेतु हो तो पर्वत पक्ष है । अर्थात् इस पर्वत में है कि नहीं ? इस प्रकार से पर्वत सन्देहस्थानापन्न है, अतः वह पक्ष है । जिसमें साध्य का निश्चय पाया जाए वह सपक्ष कहलाता है । जैसे - महानस - रसोई । महानस में अग्निरूप साध्य सुनिश्चित है, अतः महानस संपक्ष है । जिस में साध्य के प्रभाव का निश्चय पाया जाये उसे विपक्ष कहते हैं, जैसे - महाहृद - सरोवर है । सरावर में अग्नि का अभाव सुनिश्चित है अतः यह विपक्ष कहलाता है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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