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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४९८] श्री विपाक सूत्र [ नवम अध्याय ३ -- गगनस्पर्शी बहुत ऊचे महल के ऊपर, ऐमे तीन अर्थ किये जा सकते हैं । -सुकुमानपाणिपायं जाव सुरुवं यहां पठित जाव यावन पद पृष्ठ १०५ की टिप्पण पड़े में गये - अहीण पडिपर गपंचिंदियसरीरं-से ले कर पियदसणं-यहां तक के पदों का परिचायक है । अन्तर मात्र इतना है वहां ये पद प्रथमान्त हैं, जब कि प्रस्तुत में ये पद द्वितीयान्त अपेक्षित हैं । अतः अर्थ में द्वितीयान्त पदों की की भावना कर लेनी चाहिये। ___-असण ४ जाव मित्त नामधेज्जं - यहां पठित इन पदों से-पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाति, मित्न-जाइ-णियग-सपण-संवन्धि-परिजणं आमंतेति, तो पच्छा रहाया कयवलिकम्मासे ले कर - मित्तणाइणियगसयणसम्बोधपरिजणस्स पुरो-- यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिये । श्रशन पान आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ ४८ की टिप्पण में, तथा -मित्र इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १५० की टिप्पण में लिखा जा चका है । तथा-तो पच्छा-इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ २२९ की टिप्पण में लिखा जा चुका है। मात्र अन्तर इतना है कि वहां विजय चोरसेनापति का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में सेठ दत्त और सेठानी कृष्ण श्री का । तथा वहां - हाया - इत्यादि पद एकवचनान्त है, जब कि यहां ये पद बहुवचनान्त अपेक्षित हैं, अतः अर्थ में बहुवचनान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिये। पवधातीपरिग्गहिया जाव परिवड्ढति- यहां पठित जाव-यावत से पृष्ठ १५७ पर -ढे गये -- खीरधातीए १, मज्जण०-से ले कर-चपयपायवे सुहंसुहेण - यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिये इन का अर्थ पृष्ठ १५८ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता का । लिंगगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। -- उम्मुक्कबालभावा जाव जोव्वणे ग- यहां पठित जाव - यावत् पद से -जोवण - गमणुप्पत्ता विराणायपरिणयमेत्ता इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । युवावस्था प्राप्त को यौवनकानु - प्राप्ता कहते हैं और विज्ञान की परिपक्व अवस्था को प्राप्त विज्ञातपरिणतमात्रा कही जाती है। - खुज्जाहिं जाव परिक्वित्ता -यहां पठित जाव - यावत् पद से चिलाइयाहि वामणीवडभीबब्बरी-मे ले कर-चेडियाचक्कबाल - यहां तक के पदों ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १६० तथा १६१ पर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झतक कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता कुमारी का। -हाते जाव विभूसिते-यहां के - जाव-यावत् पद से विवक्षित गठ का वर्णन पृष्ठ ३३३ पर लिखा जा चका है । तथा राया जाव वीतीवयमाणे- यहां पठित जाव यावत् – पद से पृष्ठ ४९४ पर - बहुहिं पुरिसेहिं सद्धिं संवरिपुडे आसवाहणियाए णिज्जायमाणे दनस्स गाहावइस्स गिहस्स अदू सामंतेणं-पढ़े गए इन पदों का ग्रह ए करना चाहिये । तथा -भागासतलगंसि जाव पासति--यहां पठित जाव यावत् पद से कणगतिंदूसपण कोलमाण -इन पदों को ग्रहण करना चाहिये । तथा-करतल० जाव पवं- यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ २४६ पर लिखा जा चुका है। दत्तपुत्री देवदत्ता के सम्बंध में अपने अनुवरी के कथन को सुनने के बाद रोहीतक नरेश वैश्रमणदत्त ने क्या किया ? अब सूत्रकार उस का वणन करते हुए कहते हैंमूल -'तते णं से वेसमणे राया अस्सवाहणियारो पडिणियत्ते समाणे अमितर (१) छाया - तत: स वैश्रमणो राजा अश्ववाहनिकात: प्रतिनिवृत्तः सन् अभ्यन्तरस्थानीयान् पुरुषान् शब्दयति २ एवमवादीत् - गच्छत यूयं देवानुपियाः ! दत्तस्य दुहितरं कृष्णश्रिय अात्मजां देवदत्तां For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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