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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [४९७ यथाविधि पालन पोषण करने लगी अर्थात् गर्भकाल में हानि पहुंचाने वाले पदार्थों का त्याग और गर्भ को पुष्ट करने वाली वस्तुओं उपभोग करती हुई समय व्यतीत करने लगी। गर्भकाल पूर्ण होने पर कृष्णश्री ने एक सुकोमल हाथ पैरों वाली सांगपूर्ण और परम रूपवती कन्या को जन्म दिया । बालिका के जन्म से सेठदम्पती को बड़ा हर्ष हुआ, तथा इस उपलक्ष्य में उन्हों ने बड़े समारोह के साथ उत्सव मनाया और प्रीतिभोजन कराया, तथा बारहवें दिन नवजात बालिका का "देवदत्ता, ऐसा नामकरण किया। तब से वह बालिका देवदत्ता नाम से पुकारी जाने लगी, इस तरह बड़े आडम्बर के साथ विधिपूर्वक उसका नामकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। देवदत्ता के पालन पोषण के लिये माता पिता ने " - ५ --गोदी में उठाने वाली, २-दूध पिलाने वाली, ३-स्नान कराने वाली, ४-क्रीड़ा कराने वाली, और ५-शृगार कराने वाली " इन पांच धाय माताओं का प्रबन्ध कर दिया था और वे पांचों ही अपने २ कार्य में बड़ी निपुण थीं, उन्हीं की देख रेख में बालिका देवदत्ता का पालन पोषण होने लगा और वह बढ़ने लगी। उस ने शैशव अवस्था से निकल कर युवावस्था में पदार्पण किया । यौवन की प्राप्ति से परम सुन्दरी देवदत्ता रूप से, लावण्य से, सौन्दर्य एवं मनोहरता से अपनी उपमा श्राप बन गई । उस की परम सुन्दर प्राकृति की तुलना किसी दूसरी युवती से नहीं हो सकती, मानों प्रकृति की सुन्दरता और लावण्यता ने देवदत्ता को ही अपना पात्र बनाया हो। किसी समय स्नानादि क्रिया यों से निवृत हो सुन्दर वेष पहन कर बहुत सी दासियों के साथ अपने गगनचुम्बी मकान के ऊपर झरोखे में सोने को गेंद से खेलती हुई देवदत्ता बालसुलभ कोडी से अपना मन बहला रही थी, इतने में उस नगर के अधिपति महाराज वैश्रमणदत्त बहुत से अनु वरों के साथ घोड़े पर सवार हए अश्वक्रीडा के निमित्त दत्त सेट के मकान के पास से निकले तो अकस्मात् उन की दृष्टि महल के उपरिभाग की तरफ़ गई और वहां उन्हों ने स्वर्णकन्दुक से दासियों के साथ क्रोडा में लगी हुई देवदत्ता को देखा. देख कर उस के अपूर्व यौवन और रूपलावण्य ने महाराज वेश्रमणदत्त को बलात् अपनी ओर आकर्षित किया और वहां पर ठहरने पर विवश कर दिया। देवदत्ता के अलौकिक सौन्दर्य से महाराज वेश्रमण को बड़ा विस्मय हुा । उन्हें आज तक किसी मानवी स्त्री में इतना सौन्दर्य देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। कुछ समय तो वे इस भ्रांति में रहे कि यह कोई स्वर्ग से उतरी हुई देवांगना है या मानवी महिला, अन्त में उन्हों ने अपने अनुचरों से पूछा कि यह किस की कन्या है । और इस का क्या नाम है ।, इस के उत्तर में उन्हों ने कहा कि महाराज ! यह अपने नगर सेठ दत्त की पुत्री और सेठानी कृष्णश्री की आत्मजा है और देवदत्ता इस का नाम है । यह रूपलावण्य की राशि और नारीजगत् में सर्वोत्कृष्ट है। -उक्किट्ठा उक्लिरीरा-इस का अर्थ है - उत्कृष्ट उत्तम सुन्दर शरीर वानी । उत्कृष्ट सुन्दर शरीरं यस्याः सा तथा । तथा रूप और लावण्य में इतना अन्तर है कि रूप शुक्ल, कृष्ण आदि वर्ण-रंग का नाम है और शरीरगत सौन्दयविशेष की लावण्य संज्ञा है। अर्धमागधी कोष में आकाशतलक और आकारातल ये दो शब्द उपलब्ध होते हैं । अकाशतलक का अर्थ वहां झरोखा तथा अकाशतल के १ -आकारा का तल. २ - गगनस्पर्शी - बहुत ऊंचा महल, ऐसे दो अर्थ लिखे हैं । प्रस्तुत में सूत्रकार ने आकारात तक शब्द का आश्रयण किया है, परन्तु यदि आकाशतल शब्द से स्वार्थ में क प्रत्यय कर लिया जाए तो प्रस्तुत में आकारातलक शब्द के-आकाश का तन, अथवा गगनस्पर्शी बहुत ऊंचा महल ये दोनों अर्थ भी निष्पन्न हो सकते हैं । तात्पर्य यह है कि - उपि आगा. सतलगंसि-इस पाठ के १-ऊपर झरोखे में, २- ऊपर श्राकाशतल पर अर्थात् मकान की छत पर तथा For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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