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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । ४८३ - - - क्योंकि अपनी पुत्रियों के साथ किये गये दुर्व्यवहार को चुपचाप सहन करने का अंश मातृहृदय में बहुत कम पाया जाता है। यह तो अनुभव मिद्ध है कि जीवन का मोह प्रत्येक व्यक्ति में पाया जाता है । संसार में कोई भी व्यक्ति इस से शून्य नहीं मिलेगा । व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, जीवन सब को प्रिय है और सभी जीवित रहना चाहते हैं, । इसी लिये संसार में जिधर देखो उधर जीवनरक्षा के लिये ही हर एक प्राणी उद्योग कर रहा है। जोवन को हानि पहुंचाने वाले कारणों का प्रतिरोध तथा जीवन का अपहरण करने वाले शत्र तिकार एवं उसे सुरक्षित रखने में निरन्तर सावधान रहने का यत्न यथाशक्ति प्रत्येक प्राणी करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। महारानी श्यामा भी अपने जीवन को सुरक्षित रखने के लिये निरन्तर यत्नशील रहती है, उस के हृदय में जीवन के विषय में कुछ शंका हो रही है, इस लिए वह पूरी सावधानता से काम कर रही है । वह जानती है कि मैं ही महाराज सिंहसेन के हृदयसिंहासन पर विराज रही हूं, और किसी के लिये अणुमात्र भी स्थान नहीं । यही कारण है कि महाराज की ओर से मेरी शेष बहिनों ( सपत्नियों-सौकनों ) की उपेक्षा ही नहीं किन्तु उनका अपमान एवं निरादर भी किया जाता है । संभव है कि इससे मेरी बहिनों के हृदय में तीव्र आघात पहुंचे और इस के प्रतिकार के निमित वे अपनी क्रोधाग्नि को मेरी ही आहुति से शान्त करने की चेष्टा करें। महाराज का उन के प्रति जो असद्भाव है, उस का मुख्य कारण मैं ही एक हूं। अतः मेरे प्रति उन की मनोवृत्ति में क्षोभ उत्पन्न होना अस्वभाविक नहीं है। आत्मरक्षा की विचारधारा में निमग्न श्यामा को किसी दिन विस्वस्त सूत्र से जब " -- ४९९ देवियों के साथ महाराज सिंहसेन की ओर से किये गये दुर्व्यवहार को जान कर उन की माताओं के हृदय में विरोध की ज्वाला प्रदीप्त हो उठी है और उन्हों ने मिल कर श्यामा को अन्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, तदनुसार वे उस अवसर की प्रतीक्षा कर रही हैं-" यह वृत्तान्त जानने को मिला तो इस से उस के सन्देह ने निश्चित रूप धारण कर लिया। उसे पूरी तरह विश्वास होगया कि उसके जीवन का अन्त करने के लिये एक बड़े भारी षडयन्त्र का आयोजन किया जा रहा है और वह उस की अन्य बहिनों (सपत्नियों की माताओं की तरफ से हो रहा है । यह देख वह एकदम भयभीत हो उठी और 'कोपभवन में जाकर प्रार्तध्यान करने लगी। "-मुच्छिते ४-" यहां के अंक से -गिद्दे, गढिते, अक्रोववन्ने-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ पृष्ठ १७३ पर लिखा जा चुका है, तथा अन्तर छिद्र और विरह-इन पदों का अर्थ पृष्ठ ३६२ पर लिखा जा चुका है। ___"-सीहसेणे जाव पडिजागरमाणीप्रो-" यहां पठित जाव-यावत् पद पृष्ठ ४७९ पर पढ़े गये -राया सामाप देवीए मुच्छिते से ले कर-छिद्दाणि य विरहाणि य - यहां तक के पदों का परिचायक है। "-भीया ४-"यहां ४ के अंक से - तत्था, उविग्गा, संजातभया-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। ___"-श्रोहय. जाब झियासि " यहां पठित जाव यावत् - पद से -मणसंकप्पा भूमीग (१) राजमहलों में एक ऐसा स्थान भी बना हुआ होता है जहां पर महारानिये किसी कारणवशात् उत्पन्न हुए रोष को प्रकट करती हैं और वहां पर प्रवेश मात्र काप -गुस्से के कारण ही किया जाता है । उस स्थान को कोपगृह या कोपभवन कहते हैं । अथवा - महारानिये क्रोधयुक्त हो कर अपने केशादि को बखेर कर जिस किसी भी एकान्त स्थान में जा बैठती हैं वह कोपगृह कहलाता है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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