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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र ४८२] [नवम अध्याय I एक मात्र उन के हृदय पर सर्वेसर्वा अधिकार जमाये हुए थी, यद्यपि अन्य रानियों में भी पतिप्रेम और रूप - लावण्य की कमी नहीं थी, परन्तु श्यामा के मोहजाल में फंसे हुए सिंहसेन उन की तरफ आँख भर देखने का भी कष्ट न करते । महाराज सिहसेन का यह व्यवहार बाक़ी को रानियों को तो असह्य था ही, परन्तु जब उनकी माताओं को इस व्यवहार का पता लगा तो उन्हें बहुत दुःख हुआ । वे सब मिल कर आपस में परामर्श करती हुई इस परिणाम पर पहुँची कि हमारी पुत्रियों से इस प्रकार के दुर्व्यवहार का कारण एक मात्र श्यामा है, उस ने महाराज को अपने में इतना अनुरक्त कर लिया है कि वह उन को दूसरी तरफ झांकने का भी अवसर नहीं देती, इसलिये उसी को ठीक करने से सब कुछ ठीक हो सकेगा । ऐसा विचार कर वे अग्नि, विष, अथवा शस्त्र आदि के प्रयोग से महारानी श्यामा को समाप्त कर देने की भावना से ऐसे अवसर की खोज में लग गई जिस में श्यामा को मृत्युदण्ड देना सुलभ हो सके । प्रस्तुत कथासंदर्भ से अनेक ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश पड़ता है, जो कि निम्नोक्त हैं - १- घर में हर एक के साथ समव्यवहार रखना चाहिये, किसी के साथ कम और किसी के साथ विशेष प्रेम करने से भी अनेक प्रकार की बाधाय उपस्थित हो जाती हैं। जहां समान अधिकारी हों वहां इस प्रकार का भेदमूलक व्यवहार अनुचित ही नहीं किन्तु अयोग्य भी है । अतः इस का परिणाम भी भयंकर ही होता है । इतिहास इस की पूरी २ साक्षी दे रहा है । महाराज सिंहसेन श्यामा के साथ अनुराग करते हुए यदि शेष रानियों से भी अपना कर्तव्य निभाते और कम से कम उन की सर्वथा उपेक्षा न करते तो भी इतना आपत्तिजनक नहीं था, परन्तु उन्हों ने तो बुद्धि से काम ही नहीं लिया । तात्पर्य यह है कि यदि वे अन्य रानियों के साथ अपना यत्किंचित् स्नेह भी व्यक्त करने का व्यावहारिक उद्योग करते तो उनकी प्रेयसी श्यामा के प्रति अन्य महिलाओं के तथा उन की माताओं के हृदयों में नारीजन - सुलभ विद्वेषामि को प्रज्वलित होने का अवसर ही न आता । (२) कुलीन महिला के लिये पतिप्रेम से वंचित रहना जितना दुःखदायी होता है उतना और कोई प्रतिकूल संयोग उसे कष्टप्रद नहीं हो सकता। इस के विपरीत उसे पतिप्रेम से अधिक कोई भी सांसारिक वस्तु इष्ट नहीं होती । श्यामा देवी के साथ जिन अन्य राजकुमारियों का महाराज सिंहसेन ने पाणिग्रहण किया था, उन का भी पतिप्रेम में भाग था, फिर उस से बिना किसी कारण विशेष के उन्हें वंचित रखना गृहस्थधर्म का नाशक होने के साथ २ अन्यायपूर्ण भी है । (३) पुत्री के प्रति माता का कितना स्नेह होता है १, यह किसी स्पष्टीकरण की अपेक्षा नहीं रखता । उस के हृदय में पुत्री को अपने श्वशुरगृह में सर्व प्रकार से सुखी देखने की अहर्निश लालसा बनी रहती है । सब से अधिक इच्छा उस की यह होती है कि उस की पुत्री पतिप्रेम का अधिक से अधिक उपभोग करे. परन्तु यहां तो उस का नाम तक भी नहीं लिया जाता। ऐसी दशा में उन राजकुमारियों की माताएं अपनी पुत्रियों के दुःख में समवेदना प्रकट करतो हुई हत्या जेसे महान् अपराध करने पर उतारू हो जायें तो इस में मातृगत हृदय के लिये आश्चर्यजनक कौनसी बात है १, (१) श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के नवम अध्ययन में जिन रक्षित और जिनवाल के जीवनवृत्तान्त के प्रसंग में समुद्रगत डगमगाती हुई नौका का वर्णन करते हुए 66 - नव - बहू उवरयभ नुया विलवाणी विव-" ऐसा लिखा है अर्थात् नौका की स्थिति उस नववधू की तरह हो रही है, जो पति के छोड़ देने पर विलाप करती है। भाव यह है कि पति से उपेक्षित नारी का जीवन बड़ा ही दुःखपूर्ण होता । प्रकृत में ज्ञातासूत्रीय उपमा व्यवहार का रूप धारण कर रही है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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