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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । का संपादन करना चाहते थे । "-एगदिवसेणं-" यह पद महाराज महासेन की कायं दक्षता एवं दीघदर्शिता का सूचक है। इतने बड़े समारम्भ को एक ही दिन में सम्पूर्ण करना कोई साधारण काम नहीं होता । तात्पर्य यह है कि वे व्यवहार में कुशल और बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति थे । बहुकालसाध्य काय को भी स्वल्प काल में सम्पन्न कर लेते थे । यह सब को विदित ही है कि घड़ी में जितनी चावी दी हुई होती है, उतनी ही देर तक घड़ी चलती है और समय की सूचना देती रहती है । चाबी के समाप्त होते ही वह खड़ी हो जाती है. उस की गति बन्द हो जाती है। यही दशा इस मानव शरीर की है। जब तक प्राय है तब तक वह चलता फिरता और सर्व प्रकार के कार्य करता है । आयु के समाप्त होते ही उसकी सारी चेनाएं समाप्त हो जाती हैं । वह जीवित प्राणी न रह कर. एक पाषाण की भान्ति निश्चेष्टता को धारण कर लेता है, और उस शरीर को जिस का कि बराबर पालन पोषण किया जाता था, जला दिया जाता है । इस विचित्र लीला का प्रत्येक मानव अनुभव कर रहा है । इसी के अनुसार महाराज महासेन भी अपनी समस्त मानव लीलाओं का सम्बरण करके मृत्यु की गोद में जा विराजे। राजभवनों में महाराज की मृत्यु का समाचार पहुंचा तो सारे रणवास में शोक एव दुःख को चादर बिछ गई । युवराज सिंहसेन को महाराज की मृत्यु से बड़ा आघात पहुंचा । शहर में इस खबर के पहुंचते ही मातम छा गया । नगर को जनता. युवराज सिंहसेन के सन्मुख समवेदना प्रकट करने के लिये दौड़ी चली आ रही है । अन्त में बड़े समारोह के साथ महाराज महासेन की अरथी उठाई गई और उन का विधिपूर्वक दाहसंस्कार किया गया । महाराज महासेन की मृत्यु के बाद उन की लौकिक मृतक क्रियायें समाप्त होने पर प्रजाजनों ने यवराज सिंहसेन को राज्यसिंहासन पर बिठलाने के लिये, उनके राज्याभिषेक की तैयारी की और राज्याभिषेक कर के उसे सिंहासनारूढ किया गया । तब से युवराज सिंहसेन महाराज सिंहसेन के नाम से प्रख्यात होने लगे । महाराज सिंहसेन भी पिता की भान्ति न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे और अपने सद्गुणों एवं सद्भावनाओं से जनता के हृदयों पर अधिकार जमाते हुए राज्यशासन को समुचित रीति से चलाने लगे । __-रिद्ध०-तथा - अहीण. जुवराया- यहां के बिन्दु से अभिमत पाट क्रमशः पृष्ठ १३४ और ३२० पर लिखा जा चुका है । तथा-अभुग्गत०- यहां के बिन्दु से सूत्रकार को निम्नोक्त पाठ अभिमत है - अभुग्गयमुसियपहसियाई विव मणि - कणग-रयण -भत्ति-चित्ताइवाउद्धृत-विजय - बेजयंती-पडागाच्छत्ताइच्छत्तकलियाई तुंगाई गगणतलमभिलंघमाणसिहराई जालंतरयणपंजरुम्मिल्लियाई व मणिकणगथूभियाइ वियसितसयपत्तपुंडरीयाइ तिलयरयणद्धयचंदच्चित्ताइ नानामणिमयदामालंकिए अन्तो बहिं च सराहे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थरे सुहफासे सस्सिरीयस्वे पासाइए दसणीए अभिरुवे पडिरूवे , तेसिं णं पासादवडिंसगाणं बहुमझदेसभागे एत्थ णं एणं च महं भवणं कारेन्ति अणेगखंभसयसन्निविटं लीलठियसालभंजियागं अब्भुग्गयसुकयवइरवेइयातोरणवररइयसालभंजियासुसिलिट्ठविसिठ्ठलसंठियपसत्थवेरुलियखभनानामणिकणगरयणखचियउज्जलं बहुसमसुविभत्तनिचियरमणिज्जभूमिभागं ईहामिय उसमतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नरहरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमजयभत्तिचित्त खंभुग्गयवयरवेइयापरिग्गयाभिरामं विज्जाहरजमलजुय For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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