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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राकथन विनाश से हो उसे कर्म का फल कहना वा मानना उस के (मोक्ष के) स्वरूप से अनभिज्ञता प्रदर्शित करना है। यदि वास्तविकरूप से विचार किया जाये तो जो लोग मुक्तात्मा का पुनरावर्तन मानते हैं वे मोक्ष को मानते ही नहीं । उन के मत में स्वर्गविशेष ही मोक्ष है और वह कर्म का फलरूप होने से अनित्य भी है । जैन दर्शन इसे कल्प-देवलोक के नाम से अभिहित करता है, तथा अन्य भारतीय दर्शन भी इसी *भाँति मानते हैं । परन्तु मुक्तात्मा का- कैवल्यप्राप्त आत्मा का पुनरावर्तन किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। ___कुछ लोग इस विषय में यह युक्ति देते हैं कि जहां २ वियोग है, वहां २ सम्बन्ध की सादिता है । अर्थात् संसार में जितनी संयुक्त वस्तुएं हैं उन का पूर्वरूप कभी वियुक्त भी था। वस्त्र क साथ मल का संयोग है और मल के संयोग से रहित अवस्था भी वस्त्र की उपलब्ध होती है। अतः संयोग और वियोग ये दोनों ही सादि हैं। अनादि संयोग कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता ? इस प्रश्न का समाधान निम्नोक्त है __ सिद्धान्त कहता है कि आत्मा और पुद्गल अनादि अनन्त पदार्थ हैं। जब पुद्गल आत्मा से सम्बन्धित होता है तो उस की कर्म संज्ञा होती है । आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि और किसी एक कर्म की अपेक्षा सादि तथा अभव्य जीव की अपेक्षा अनन्त और भव्य जीव की अपेक्षा सान्त है । संयोग वियोगमूलक ही होता है और अनादि संयोग कहीं पर भी नहीं मिलता, यह कहना भ्रांतिपूर्ण है क्योंकि खान से निस्सृत सुवर्ण में मृत्तिका का संयोग अनादि देखा जाता है । जैसे यह संयोग अनादि है इस का अग्नि आदि के प्रयोग से वियोग उपलब्ध होता है, इसी भाँति आत्मा और कर्म का संयोग भी अनादि है । इस में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती और यह भी तप जपादि के सदुष्ठानों से विनष्ट किया जा सकता है । इस के अतिरिक्त जो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मा के साथ सम्बन्धित कर्मों या कर्मदलिकों का जब वियोग होता है तो क्या उन का फिर से संयोग नहीं हो सकता ?, लोक में दो विभक्त पदार्थों का संयुक्त होना और संयुक्तों का पृथक होना प्रत्यक्षसिद्ध है। इसी भाँति यह कर्मसम्बद्ध आत्मा भी किसी निमित्तविशेष से कर्मों से पृथक होने के अनन्तर किसी निमित्तविशेष के मिलने पर फिर भी कर्मों से सम्बद्ध हो सकता है। अतः मोक्ष सादि अनन्त न रह कर सादि सान्त ही हो जाता है । इस शंका का समाधान यह है- कि जहाँ २ वियोग है वहां २ सादिसंयोग है । यह व्याप्ति दूषित है अर्थात् वियुक्त पदार्थों का संयोग अवश्य होता है यह कोई नियम नहीं है । संसार में ऐसे पदार्थ भी दृष्टिगोचर होते हैं कि जहाँ संयोग का नाश तो होता है अर्थात् संयुक्त पदार्थ विभक्त तो होते हैं परन्तु विभक्तों का फिर संयोग नहीं होता। उदाहरणार्थ-- धान्य और आम्रफल आदि को उपस्थित किया जा सकता है। जैसे-धान्य पर से उस का *ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । (भगवद्गीता) यद्गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परम मम। (भगवद्गीता) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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