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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ४६१ वहां से । हथिणाउरे-हस्तिनापुर नगर में। मच्छताए-मत्स्यतया-मत्स्यरूप में । उववज्जिहितिउत्पन्न होगा । से-वह । गणं-वाक्यालंकारार्थक है । ततो-वहां से । मच्छिएहिं-मच्छीमारों के द्वारा । जीवियाओ- जीवन से । ववरोविते-पृथक् किया जाने पर । तत्थेव-वहीं हस्तिनापुर में । सिडिकुलंसि-श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा । बोहिं० -- सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। सोहम्मे - सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से । महाविदेहे - महाविदेह । वासे-क्षेत्र में जन्मेगा तथा वहां । सिज्झिहिति ५-सिद्ध पद को प्राप्त करेगा ५ । निक्खेवो -निक्षेप --उपसंहार पूर्व की भान्ति जान लेना चाहिये। श्रम- अष्टम । अज्मयणं-अध्ययन । समत-सम्पर्ण हा । मूलार्थ-गौतम स्वामी के"-भगवन् ! शौरिकदत्त मत्स्यबंध-मच्छीमार यहां से कालमास में काल कर के यहां जायगा और कहां उत्पन्न होगा ?-" इस प्रश्न के अनन्तर प्रभु वीर बोले कि हे गौतम ! ७० वर्ष की परमायु भागकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा नाम पहली नरक में उत्पन्न होगा । उस का अवशिष्ट संसारभ्रमण पूर्ववत् ही जानना चाहिए, यावत् वह पृथिवो-काया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से हस्तिनापुर में मत्स्य बनेगा, वहां पर मात्स्यिकों-मच्छीमारों के द्वारा वध को प्राप्त हो, वहीं हस्तिनापुर में एक श्रेष्ठिकुल में जन्मेगा, वहां पर उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, वहां मृत्यु को प्राप्त कर सौधर्म नामक देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्युत हो कर महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा और वहां चारित्र ग्रहण कर उस के सम्यग आराधन से सिद्ध पद को प्राप्त करेगा ५ । निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्व की भान्ति करलेनी चाहिये। ॥अष्टम अध्ययन सम्पूर्ण ॥ टीका-संसारी जीवन व्यतीत करने वाले प्राणियों की अवस्था को देख कर एक कर्मवादी सहृदय व्यक्ति दांतों तले अगुली दबा लेता है, और आश्चर्य से चकित रह जाता है, तथा उन जीवों की मनोगत विचित्रता पर दु:ख के अश्रु पात करता है। आज का संसारी जीव क्या चाहता ?, उत्तर मिलेगा - आनन्द चाहता है, सुख चाहता है और परिस्थितियों की अनुकूलता चाहता है । प्रतिकूलता तो उसे जरा जितनी भी सह्य नहीं होती । सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए अधिक से अधिक उद्योग करता है, इसके लिए उचितानुचित अथच पुण्य और पाप का भी उसे ध्यान नहीं रहता । तदर्थ यदि उस को किसी जीव की हत्या करनी पड़े तो उसे भी निस्संकोच हो कर डालता है । किसी को दुखाने में उसे श्रानन्द मिले तो दुखाता है, तड़पाने में सुख मिले तो तड़पाता है । सारांश यह है कि - आज के मानव व्यक्ति की यह विचित्र दशा है कि वह पुण्य का फल (सुख) तो चाहता है परन्तु पुण्य का आचरण नहीं करता और विपरीत इसके पाप के फल की इच्छा न रखता हुआ भी पागचरण से 'पराड मुख नहीं होता और पाप का फल भोगते हुए छटपटाता है, बिलबिलाता है । शौरिकदत्त मच्छीमार भी उन्हीं व्यक्तियों में से एक था जो कि पाप करते समय तो किसी प्रकार का विचार नहीं करते और पाप का फल (दुःख) भोगते समय सिर पीटते और रोते चिल्लाते हैं । __ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से शौरिकदत्त का अतीत और वर्तमान जीवन वृत्तान्त सुन कर गौतम स्वामी को बहुत सन्तोष हुआ और वे शोरिकदत्त की वर्तमान दुःखपूर्ण दशा का कारण तो जान गये परन्तु भविष्य में उस का क्या बनेगा ?, इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वे भगवान् से फिर पूछते हैं कि भगवन् ! यह मर कर अब कहां जायेगा १ और कहां पर उत्पन्न होगा ? (१) पुण्यस्य फलमिच्छन्ति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । न पापफलमिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥१॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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