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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४६०] श्री विपाक सूत्र [अष्टम अध्याय का टुकड़ा रखना - कवलग्राह कहलाता है । ५-सल्लुद्धरणेहि य त्ति-शल्योद्धरणम् -यंत्रप्रयोगात् कंटकोद्धारः, तैः-" अर्थात् यन्त्र के प्रयोग से कांटे को निकालना शल्योद्धार कहलाता है । ६-विसल्ल. करणेहि य त्ति-विशल्यकरणम् -औषधसामर्थ्यात्-" अर्थात् औषध के बल से कांटा निकालना विराल्यकरण कहलाता है। -संता ३-यहां दिए गए ३ के अंक से अवशिष्ट, १-तंता , २-परितन्ता-इन दो पदों का ग्रहण करना चाहिये । श्रान्त आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ ७३ पर की जा चुकी है ।। -वेज्जपडियारणिविणे -वैद्यप्रतिकारनिर्विरणः-(अर्थात् वैद्यों के प्रतिकार- इलाज से निराश), यह पद शौरिकदत्त के हतभाग्य होने का सूचक है । भाग्यहीन पुरुष के लिए किया गया लाभ का काम भी लाभप्रद नहीं रहता । शल्यचिकित्सा तथा औषधिचिकित्सा आदि में प्रवीण वैद्यों का ल रहना. शौरिक की मन्दभाग्यता को ही अाभारी है। वस्ततः पापिष्टों की यही दशा होती है । उन के लाभ के लिए किया काम भी दुःखान्त परिणाम वाला होता है। -सुक्खे जाव विहरति- यहां के जाव -यावत् पद से"-भुक्खे णिम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्ध किडिकिडियाभूए--" इन पदों का प्रहण करना चाहिये। शुष्क आदि पदों का अर्थ इसी अष्टम अध्ययन के पृष्ठ ४३१ पर किया जा चुका है। -पुराणाणं जाव विहरति-यहां पठित-जाव-यावत्-पद से अभिमत पदों का विवर्ण पृष्ठ ५२ पर किया जा चुका है। पाठक वहां पर देख सकते हैं ।। ____ अब सूत्रकार शौरिकदत्त के आगामी भवों का वर्णन करते हुए कहते हैं मल- 'सोरिए णं भंते ! मच्छबंधे इअो कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ?, कहिं उववज्जिहिति १, गोतमा ! सत्तरि वासाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए० संसारो तहेव जाव पुढवीए । ततो हत्थिणाउरे मच्छत्ताए उववज्जिहिति । से णं ततो मच्छिएहिं जीवियानो ववरोविते तत्थेव सेट्टिकुलंसि बोहिं० सोहम्मे० महाविदेहे वासे० सिज्जिहिति ५ । निक्खेवो।। ॥ अट्टम अज्झयणं समत्त ॥ पदार्थ-भंते !-हे भगवन् ! ।सोरिए णं-शौरिक । मच्छबंधे-मत्स्यबन्ध-मच्छीमार । इप्रो-यहां से । कालमासे-कालमास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर । कालं किच्चा-काल करके । कहिं-कहां। गच्छिहिति -- जायगा ? । कहिं-कहां पर । उववन्जिहिति?-उत्पन्न होगा । गोतमा !- हे गौतम ! । सत्तरि-सत्तर । वासाई- वर्षों की । परमाउं-परमायु । पालइत्ता-पालन करके-भोग कर । कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके । इमीसे-इस । रयणप्पभाए-रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा। संसारो-संसारभ्रमण । तहेव -उसी भांति अर्थात् प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र की भांति करता हुआ । जाव - यावत् । पुढवीए०-पृथिवीकाया में लाखों वार उत्पन्न होगा। ततो (१) छाया- शौरिको भदन्त ! मत्स्यबन्ध: इतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति !, कुत्रोपपत्स्यते ? । गौतम ! सप्ततिं वर्षाणि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वाऽस्यां रत्नप्रभायां संसारस्तथैव यावत् पृथिव्याम् । ततो हस्तिनापुरे मत्स्यतयोपपत्स्यते । ततो मात्स्यिकर्जीवितात् व्यपरोपितस्तत्रैव श्रेष्ठिकुले बोधि० सौधर्मे० महाविदेहे वर्षे० सेत्स्यति ५ । निक्षेपः । ॥ अष्टमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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