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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित । कर्तव्य बन जाता हैं कि वे प्राणिघात, मांसाहार तथा मदिरापान की अन्यायपूर्ण, निदित, दुर्गतिप्रद एवं दुःखमूलक सावद्य प्रवृत्तियों से अपने को सदा दूर रखें और अपना लौकिक तथा पारलौकिक श्रास्मश्रेय साधने का सुतिमूलक सत्प्रयास करें । अन्यथा श्रीद रसोइए की भांति प्राणिघातादि से उपार्जित दुष्कर्मों का फल भोगने के लिये नरकादि गतियों में कल्पनातीत दुःखों का उपभोग करना पडेगा, एवं जन्ममरणरूप दुःखसागर में डूबना पड़ेगा । -अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे- यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पदों का विवर्ण पृष्ठ ५. पर किया जा चुका है । पाठक वहीं देख सकते हैं। मच्छिया-इत्यादि पदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है - १ मच्छिया- मात्स्यिकाः, मत्स्यघातिनः- अर्थात् मत्स्यों को मारने वाले व्यक्ति का नाम मात्स्यिक है। २- वागुरिया-वागुरिकाः, मृगाणां बन्धकाः- अर्थात् मृगादि पशुओं को जाल में फंसाने वाला व्यक्ति वागुरिक कहलाता है । ३-साउणिया-शाकुनिकाः, पतिणां घातकाः- अर्थात् पक्षियों का घात - नाश करने वाला व्यक्ति शाकुनिक कहा जाता है । ४-दिण्णभतिभत्तवेयणा-इस पद की व्याख्या पीछे पृष्ठ २१६ पर की जा चुकी है। ५-सराहमच्छा जाव पडागातिपडागे- यहां पठित -जाव--यावत् पद-खवल्लमच्छा य जुगमच्छा य विभिडिमच्छा य हलिमच्छा य मग्गरिमच्छा य रोहियमच्छा य सागरमच्छा य गागरमच्छा य वडमच्छा य वडगरमच्छा य तिमिमच्छा य तिमिगिलमच्छा य णक्कमच्छा य तंदुलमच्छा य करिणयमच्छा य सालिमच्छा य मणियामच्छा य लंगुलमच्छा य मूलमच्छा यइत्यादि पदों का परिचायक है । श्लक्ष्णमत्स्य, खवल्लमत्स्य, युगमत्स्य, विभिडिमत्स्य, हलिमत्स्य, मगरिमत्स्य, रोहितमत्स्य. सागरमत्स्य, गागरमत्स्य, वडमत्स्य, वडगर मत्स्य, तिमिमत्स्य, तिमिङ्गिलमत्स्य, नक्रमत्स्य (नाका), तन्दुलमत्स्य (चावल के दाने जितना मत्स्य), कर्णिकमत्स्य, शालिमत्स्य, मणि कामत्स्य, लंगुलमत्स्य, मूलमत्स्य ---ये सब मत्स्यविशेषों के ही नाम हैं । ६-अए जाव महिसे - यहां पठित -जाव -यावत्-पद " -एले य रोज्झे य ससर य पसए य सूयरे य सिंघे य हरिणे य वसभे य-"इन पदों का ग्राहक है । अज आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ २८९ पर किया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद षष्ठ यन्त हैं, जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त हैं । विभक्तिगत भेद के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। तथा-तित्तिरे य जाव मयूरे- यहां पठित जाव--यावत् पद-वहार य लावर य कवोए य कुक्कुड़े य-इन पदों का परिचायक है। तित्तर तीतर को, वर्तक बटेर को, लावक लावा नामक पक्षिविशेष को, कपोत कबूतर को और कुकुट मुर्गे को कहते हैं । ७-कप्पणीकप्पियाई-कल्प्यते भिद्यते यया सा कल्पनी-छुरिका, कर्जीकेत्यर्थःअर्थात् छुरी या कैंची से काटे हुए मांस कल्पनीकर्तित कहलाते हैं । प्रस्तुत में -सरहखण्डियाणि अादि जितने पद हैं वे सब मांस के विशेषण हैं । इन की व्याख्या निम्नोक्त है - १- सण्हखण्डियाणि-सूक्ष्मरूपेण खण्डीकृतानि -- अर्थात् जिसे सूक्ष्मरूप से खण्डित किया गया है । तात्पर्य यह है कि जिस के छोटे २ टुकड़े किये गए हैं वह सूक्ष्मखण्डित कहलाता है। __२-वदीहरहस्सखण्डियाणि - वृत्तं च दोघं च ह्रस्वं च एषां समाहारः वृत्र" वृत्तदीर्घह्रस्वरूपेण खण्डितानि । वृत्तखण्डितानि - गोलाकारेण खण्डीकृतानि, दीर्घख For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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