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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । कर लेगा। यह संसारी जीवों की लीलाओं का चित्र है, जिन्हें वे इस संसार की रंगस्थली पर निरन्तर करते चले जा रहे हैं, इस विचारपरम्परा द्वारा संसार में रहने वाले जीव की जोवनयात्रा का अवलोकन करने के बाद गौतम स्वामी भगवान् के चरणों में वन्दना करते हैं और इस अनुग्रह के लिये कृतज्ञता प्रकट करके अपने आसन पर चले जाते हैं, वहां जाकर आत्मसाधना में संलग्न हो जाते हैं । पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मास्वामी से सातवें अध्यन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस की पूर्ति के लिये श्री सुधर्मा स्वामी ने उन्हें प्रस्तुत सातवें अध्ययन का वर्णन कह सुनाया। सातवें अध्ययन को सुना लेने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी कहने लगे कि हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सातवें अध्ययन का अर्थ बतलाया है। मैंने जो कुछ भी तुम्हें सुनाया है, वह सब प्रभुवीर से जैसे मैंने सुना था वैसे ही तुम्हें सुना दिया है, इस में मेरी अपनी कोई भी कल्पना नहीं है। इन्हीं भावों को सूत्रकार ने "निक्खेवो” इस एक पद में अोतप्रोत कर दिया है । निम्खेवा- पद का अथसम्बन्धी ऊहापोह पहले पृष्ठ १८८ पर कर आए हैं। प्रस्तुत में इस पद से जो सूत्रांश अभिमत है, वह निम्नोक्त है - एवं खनु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाण सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमठे पराणत्ते, त्ति बेमि-" इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है। "-संसारो तहेव जाव पुढवीए.-" यहां पठित संसार पद संसारभ्रमण का परिचायक है । तथा - तहेव-पद का अर्थ है - वैसे ही अर्थात् जिस तरह प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण वर्णित हुआ है, वैसे ही यहां पर भी उम्बरदत्त का समझ लेना चाहिये, तथा उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव - यावत् पद से ग्रहण किया गया है, अर्थात् जाव-यावत् पद पृष्ठ ८९ पर पढ़े गये "-से णं ततो अणंतरं उव्याहत्ता सरीसवेसु उववजिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चार पुढवीर-से लेकर -वाउ० तेउ० पाउ० --" यहां तक के पाठ का परिचायक है । तथा-पुढवार०यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ को सूचना पृष्ठ २७५ पर दी जा चुकी है। -सेट्टि० . " यहां के बिन्दु से-कुलंसि पुत्ततार पञ्चायाहिति - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । तथा – बाहि०, सोहम्मे० महाविदेहे० सिज्झिहिति ५- इन पदों से विवक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ ३१२ पर दी जा चुकी है। सारांश यह है कि संसार में दो तरह के प्राणी होते हैं, एक वे जो काम करने से पूर्व उस के परिणाम का विचार करते हैं, उस से निष्पन्न होने वाले हानिलाभ का ख्याल करते हैं । दूसरे वे होते हैं, जो बिना सोचे और बिना समझे ही काम का प्रारम्भ कर देते हैं, वे यह सोचने का भी उद्योग नहीं करते कि इस का परिणाम क्या होगा, अर्थात् हमारे लिये यह हितकर होगा या अहितकर । इन में पहली श्रेणी के लोग जितने सुखी हो सकते हैं, उस से कहीं अधिक दुःखी दूसरी श्रेणी के लोग होते हैं । धन्वन्तरि वैद्य यदि रोगियों को मांसाहार का उपदेश देने से पूर्व, तथा स्वयं मांसाहार एवं मदिरापान करने से पहले यह विचार करता कि जिस तरह मैं अपनी जिहवा के प्रास्वाद के लिए दूसरों के जीवन का अपहरण करता है, उसी तरह यदि कोई मेरे जीवन के अपहरण करने का उद्योग करे तो मुझे उस का यह व्यवहार सह्य होगा या असह्य १, अगर असह्य है तो मुझे भी दूसरों के से अपने मांस को पुष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है। "जीवितं यः स्वयं चेच्छेत, कयं सोऽन्यं प्रघातयेत्” इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मुझे इस प्रकार के सावद्य अथच गहिंत व्यवहार For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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