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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । में सूत्रकार मौन हैं। हमारे विचार में तो प्रस्तुत में यही बात प्रतीत होती है कि गङ्गादत्ता के मृत - वत्सात्व दोष के उपशमन का समय आ गया था और उस की कामना की पूर्ति करने वाला कोई पुण्य कर्म उदयोन्मुख हुश्रा । परिणाम यह हुआ कि उसे जीवित पुत्र की प्राप्ति हो गई । वह पुत्रप्राप्ति यक्ष के आराधन के पश्रात् हुई थी, इसलिये व्यवहार में वह उस की प्राप्ति में कारण समझा जाने लगा । रहस्यं तु केवलिगम्यम् । जो लोग किसी पुत्रादि को उपलब्ध करने के उद्देश्य से देवों की पूजा करते हैं, और पूर्वोपार्जित किसी पुण्यकर्म के सहयोगी होने के कारण पुत्रादि की प्राप्ति कर लेने पर भक्तिरसातिरेक से उसे देवदत्त ही मान लेते हैं. अर्थात् पुत्रादि की प्राप्ति में देव को उपादान कारण मान बैठते हैं, वे नितान्त भूल करते हैं, क्यों के यदि पूर्वोपार्जित कर्म विद्यमान हैं तो उस में देव सहायक बन सकता है, इस के विपरीत यदि पूर्व कर्म सहयोगी नहीं है तो एक बार नहीं, अनेकों बार देवपूजा की जावे या देव की एक नहीं लाखों मनौतिए मान ली जाए तो भी देव कुछ नहीं कर सकता । सारांश यह है कि किसी भी कार्य की सिद्धि में देव निमित्त कारण भले ही हो जाय, परन्तु वह उपादान कारण तो त्रिकाल में भी नहीं बन सकता । अत: देव को उपादान कारण समझने का विश्वास शास्त्रसम्मत न होने से हेय है एवं त्याज्य है। प्रश्न--किसी भी कार्य की सिद्धि में देव उपादानकारण नहीं बन सकता, यह ठीक है. परंतु वह कर्मफल के प्रदान में निमित्त कारण तो बन सकता है, उस में कोई सैद्धान्तिक बाधा नहीं आती, फिर उस के पूजन का निषेध क्यों देखा जाता है ? उत्तर- संसार में दो प्रकार की प्रवृत्तियें पाई जाती हैं । प्रथम संसारमूलक और दूसरी मोक्षमूलक । संसारमूलक प्रवृत्ति सांसारिक जीवन की पोषिका होती है, जब कि मोक्षमूलक प्रवृत्ति उस के शोषण का और आत्मा को उस के वास्तविकरूप में लाने अर्थात् आत्मा को परमात्मा बनाने का कारण बनती है । तात्पर्य यह है कि मोक्षमूलक प्रवृत्ति मात्र आध्यात्मिकता की प्रगति का कारण बनती है जब कि संसारमूलक प्रवृति जन्ममरण रूप संसार के संवर्धन का । जैनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है, वह आध्यात्मिकता की प्राप्ति के लिए सर्वतोमुखी प्ररेणा करता है । आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम लक्ष्य परमसाध्य निर्वाणपद को उपलब्ध करना होता है। सांसारिक जीवन उस के लिये बंधनरूप होता है, इसी लिए वह उसे अपनी प्रगति में बाधक सम. झता है । जन्म मरण के दुःखों की पोषिका कोई भी प्रवृत्ति उस के लिये हेय एवं त्याज्य हो. ती है । सारांश यह है कि आध्यात्मिकता के पथ का पथिक साधक व्यक्ति श्रात्मा को परमास्मा बनाने में सहायक अर्थात् मोक्षमूलक प्रवृत्तियों को ही अपनाता है और सांसारिकता की पोषक सामग्री से उसे कोई लगाव नहीं होता, और इसी लिये उससे वह दूर रहता है । देवपूजा सांसारिकता का पोषण करती है या करने में सहायक होती है, इसी लिये जैन धर्म में देवपूजा का निषेध पाया जाता है । देवपूजा सांसारिक जीवन का पोषण कैसे करती है ?, इस के उत्तर में इतना ही कहना है कि देवपूजा करने वाला यही समझ कर पूजा करता है कि इस से मैं युद्ध में शत्रु को परास्त कर दंगा, शासक जन जाऊगा, मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी, धन की प्राप्ति होगी तथा अन्य परिवार आदि की उपलब्धि होगो । इस से स्पष्ट है कि पूजक व्यक्ति मोहजाल को अधिकाधिक प्रसारित कर रहा है, जो कि संसारवृद्धि का कारण होता है, परन्तु यह एक मुमुक्षु प्राणी को इष्ट नहीं होता। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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