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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [४१३ -प्रासादन्ति ४- यहां पर दिये गए ४ के अंक से-विसापन्ति, परिभाएन्ति परिभुज्जेन्ति-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । अर्थात् आस्वादन (योड़ा खाना, बहुत छोड़ना इक्षुखण्ड. गन्ने की भान्ति ), विस्वादन (अधिक खाना, थोड़ा छोड़ना, खजूर की भान्ति), परिभाजन- दूसरों को बांटना तथा परिभोग-( सब खा जाना, रोटी आदि की भांति ) करती हैं। -कल्लं जाव जलन्ते-यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ पृष्ठ ४०. पर लिखा जा चुका है । तथा-ताओ जाव विणेति- हां पठित जाव -यावत् पद से पृष्ठ ४०९ पर पढ़े गये -अमया मोजाले , जाप्रो गां विउलं असणं ४ उपक्वडावेति २ बहहिं मित्त जाव परिवुडा. श्रो-से लेकर -प्रासादति ४ दोहलं- यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । -बहूहिं जाव रहाया- यहां के जाव-यावत् पद मे पृष्ठ ४०९ पर पढ़े ग्रये-मित्त. जाव परिखुडा पो तं विउलं असणं ४ सुरं ६ पुष्फ० जाव गहाय पाडलिसंड णगर मझमझगां पडिनिक्खमन्ति २ जेणेव पुक वरिणी तेणेव उवागच्छन्ति २ पुक्वरिणिं ओगाहंति २ - इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। __ - कय. यहां के बिन्दु से – कोउयमंगलपायच्छित्ता- इस पाठ का ग्रहण करना चाहिये । इस का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है। "-उम्बरदत्तजक्खाययणे जाव धूवं - यहां पठित जाव-यावत् पद से पृष्ठ ४०६ पर पड़े गये "-तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता उंबरदत्तस्स जक्वस्त आलोए पणामं करोति २ लोमहत्थं परामुसति परामुसित्ता उवरदत्तं जक्खं लोमहत्थएणं पमज्जति पमज्जित्ता दगधाराए अब्भुक्खेति अब्भुक्खित्ता पम्हल. गायलहि अालू ऐति अोलूहित्ता सेयाई वत्थाईपरिहेति परिहित्ता महरिहं पुप्फारुहण, वत्थारुहरण, गंधारुहणं, चुराणारुहणं करोति करित्ता- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। "- असणं ४ - तथा-सुरं च ६-यहां के अंकों से विवक्षित पाठ का विवर्ण पृष्ठ २५० पर किया जा चुका है। तथा श्रासाएमाणी ४- यहां पर दिये ४ के अक से - विसाएमाणी, परिभाएमाणी, परिभुजेमाणी --इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अथ पृष्ठ १४५ पर दिया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये शब्द वहुवचनान्त हैं जब कि प्रस्तुत में एकवचनान्त । अतः अर्थ में एकवचन की भावना कर लेनी चा हये । __-सम्पुरणदोहला ४- यहां पर दिये गये ४ के अक से विवक्षित - सम्माणियदोहला, विणीयदोहला, वोच्छिन्नदोहला सम्पन्नदोहला - इन पदों की व्याख्या पृष्ठ १४८ पर की जा चुकी है । प्रस्तुत सूत्र में सेठानी गंगादत्ता के द्वारा देवपूजा करना तथा उसके गर्भ में धन्वंतरि वैद्य के जीव का आना, एव दोहद की उत्पत्ति और उस की पूर्ति द्रादि का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में गर्भस्थ जीव के जन्म आदि का वर्णन करते हैं - मूल- तते णं सा गंगादशा णवण्हं मामाणं बहुपडिपुराणाणं दारगं पया । (१) छाया-ततः सा गङ्गादत्ता नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णषु दारकं प्रयाता । स्थिति० यावद् नामधेयं कुरुतः, यस्मादस्माकमयं दारकः उम्बरदत्तस्य यक्षस्योपयाचितलब्धः तद् भवतु दारकः उम्बरदत्तो नाम्ना । तत: स उम्बरदत्तो दारकः पञ्चधात्रीपरिगृहोतः यावत् परिवर्द्धते । ततः स सागरदत्तः साथबाहो यथा विजयामेत्रः कालधर्मेण संयुक्तः । गङ्गादत्तापि । उम्बरदत्तोऽपि निष्कासितो यथोज्झितकः । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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