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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३९०] ओ विपाक सूत्र [ सप्तम अध्याय मयूररसों तथा अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर और खेचर जोवों के मांसों से तथा मस्त्यरसों यावत् मयूररसों से पकाये हुए, तले हुए और भूने हुए मांसों के साथ छः प्रकार की सुरा आदि मदिराओं को स्वादन, विस्वादन आदि करता हुआ समय व्यतीत करता था । इस पातकमय कर्म में निपुण, प्रधान तथा इसी को अपना विज्ञान एव सर्वोत्तम आचरण बनाये हुए वह धन्वन्तरि नामक वैद्य अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके ३२ सौ वर्ष की परमायु को भोग कर कालमास में काल करके के छठी नरक में उत्कृष्ट २२ सागरापम की स्थिति वाले नारकियों में नारकीरूप से उत्पन्न हुआ । टीका- "कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है" यह न्यायशास्त्र का न्यायसंगत सिद्धान्त है । सुख और दुःख ये दोनों कार्य हैं किसी कारण विशेष के, अर्थात् ये दोनों किसी कारणविशेष से ही उत्पन्न होते । जैसे अग्नि के कार्यभूत धूम से उस के कारणरूप अग्नि का अनुमान किया जाता है ठीक उसी प्रकार कार्यरूप सुख या दुःख से भी उस के कारण का अनुमान किया जा सकता है । फिर भले ही वह कारणसमुदाय विशेषरूप से अवगत न हो कर सामान्यरूप से ही जाना गया हो, तात्पर्य यह है कि कार्य और कारण का समानाधिकरण होने से इतना तो बुद्धिगोचर हो ही जाता है कि जहां पर सुख अथवा दुःख का संवेदन है वहाँ पर उस का पूर्ववर्ती कोई न कोई कारण भी अवश्य विद्यमान होना चाहिये, परन्तु वह क्या है ?, और केसा है ।, इसका अनुगम तो किसी विशिष्ट ज्ञान की अपेक्षा रखता है। कर्मवाद के सिद्धान्त का अनुसरण करने वाले आस्तिक दर्शनों में इस विषय का अच्छी तरह से स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि आत्मा में सुख और दुःख की जो अनुभूति होती है वह उस के स्वोपार्जित प्राक्तनीय कर्मों का ही फल है, अर्थात् कर्मबन्ध की हेतभत सामग्री अध्यवसायविशेष से यह आत्मा जिस प्रकार के शुभ अथवा अशुभ कर्मों का बन्ध करता है. उसी के अनुरूप ही इसे विपाकोदय पर सख अथवा दुःख की अनुभूति होतो है । यह कर्मवाद का सामान्य अथच व्यापक सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के अनुसार किसी सुखी जीव को देख कर उस के प्रागभवीय शुभ कर्म का और दःखी जीव को देखने से उस के जन्मांतरीय प्रशभ कर्म का अनमान किया जाता है। शास्त्रचक्षु छद्मस्थात्मा की सीमित बुद्धि की पहुँच यहीं तक हों हो सकतो है. इस से आगे वह नहीं जा सकती। तात्पर्य यह है कि अमुक दुःखी व्यक्ति ने कौन सा अशुभ कर्म किया ?, और किस भव में किया?, किस का फल इसे इस जन्म में मिल रहा है, इस प्रकार का विशेष ज्ञान शास्त्रचनु छद्मस्थ आत्मा की ज्ञानपरिधि से बाहिर का होता है । इस विशेषज्ञान के लिये किसी परममेधावी दूसरे शब्दों में-किसी अतीन्द्रिय ज्ञानी की शरण में जाने की आवश्यकता होती है । वही अपने आलोकपूर्ण ज्ञानादर्श में इसे यथावत् प्रतिबिं. बित कर सकता है । अथवा यूं कहिये कि उसी दिव्यात्मा में इन पदार्थों का विशिष्ट आभास हो सकता है, जिस का ज्ञान प्रतिबन्धक आवरणों से सर्वथा दूर हो चुका है । ऐसे दिव्यालोकी महान् आत्मा प्रकृत में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं। भगवान् गौतम द्वारा दृष्ट दु:खी व्यक्ति के दुःख का मूलस्रोत क्या है ?, इसका विशेष - रूप से बोध प्राप्त करने के लिये उसके पूर्वभवों के कृत्यों को देखना होगा, परन्तु उन का द्रष्टा तो कोई सर्वज्ञ आत्मा ही हो सकता है । बस इसी उद्देश्य से गौतम स्वामी ने सर्वज्ञ आत्मा वीर प्रभु के सन्मुख उपस्थित होकर सामान्य ज्ञान रखने वाले भव्यजीवों के सुबोधार्थ पूर्व दृष्ट For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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