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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम.अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [३८९ थायर-स्थलचरों - स्थल में चलने वाले जीवों । खहयरभादीणं - और खेचरों - आकाश में चलने वाले जीवों के । मंसाई- मांसों का । उव दिसति-उपदेश देता है । अप्पणा वि य -तथा स्वयं भी । से-वह । धन्नंतरी-धन्वन्तरि । वेज्जे-वैद्य । तेहिं उन । बहूहिं-अनेकविध । मच्छ - मंसहि य - मत्स्यों के मांसों। जाव -यावत् । मयूरभंसेहि य-मयूरों के मांसों तथा । अन्देहि - अन्य । बहहिं य-बहुत से । जलयर - जलचर । थलयर-स्थलचर । खहयरसेहि य - खेचर जीवों के मांसों से तथा । मच्छरसेहि य - मत्स्यरसों । जाव-यावत् । मयूररसेहि य मयूररसों से, जो कि । सोल्लेहिं य. पक ये हुए । तलिहिं य-- तले हुए । भज्जिएहिं य-और भूने हुए हैं. उन के साथ । सुरं च ५- सुरा आदि छः प्रकार की मदिराओं का । आसाएमाणे ४-आस्वादन, विस्वादनादि करता हुआ । विहरतिविचरता है - जीवन व्यतीत करता है । तते - तत्पश्चात् । से-वह । धनंतरी - धन्वन्तरि । वेज्जे - वैद्य । एयकामे ४ - एतत्कर्मा -- ऐसा ही पाप पूर्ण जिस का काम हो, एतत्प्रधान – यही कर्म जिस का प्रधान हो अर्थात् यही जिस के जीवन की साधना हो, एतद्विद्य - यही जिस की विद्या - विज्ञान हो और एतत्समाचार --जिस के विश्वासानुसार यही सर्वोत्तम आवरण हो, ऐसा वह । सुबहुं - अत्यधिक । पावं कम्मं-पाप कर्मों का । समज्जिणित्ता = उपार्जन कर के । बत्तीसं वाससताई - बत्तीस सौ वर्षों की । परमाउं-परमायु को । पालइत्ता-पाल कर। काजमासे-कालमास में । कालं किच्चा. काल कर के । छटोर - छठी । पुढवीए-पृथिवी नरक में । उक्कोसेणं-उत्कृष्ट । बावीससागरोवमट्टिइएसु-२२ सागरोपम की स्थिति वाले । णेरइएसु-नारकियों में। रयत्ताए-नारकीरूप से । उववन्ने-- उत्पन्न हुआ। मूलार्थ-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में विजयपुर नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित, एवं समृद्ध नगर था । उस में कनकरथ नाम का राजा राज्य किया करता था। उस कनकरथ नरेश का आयुर्वेद के आठों अंगों का ज्ञाता धन्वन्तरि नाम का एक वैद्य था । आयुर्वेद - सम्बन्धी आठों अंगों का नामनिर्देश निम्नोक्त है (१) कौमारभृत्य (२) शालाक्य (३) शाल्यहत्य (४) कायचिकित्सा (५) जांगुल (६) भूतविद्या (७) रसायन और (८) वाजीकरण । शिवहस्त, शुभहस्त और लघुहस्त वह धन्वन्तरि वैद्य विजयपुर नगर में महाराज कनकरथ के अन्त:पुर में निवास करने वाली गणियों और दास दासी आदि तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाहों, इसी प्रकार अन्य बहुत से दुर्बल, ग्लान, व्याधित या बाधित और रोगी जनों एवं सनाथों, अनाथों तथा श्रमणों, ब्राह्मणों, भिक्षकों, करोटकों, कापेटिकों एवं आतुरों की चिकित्सा किया करता था, तथा उन में से कितनों को तो मत्स्यमांसों का उपदेश करता अर्थात् मत्स्यमांसों के भक्षण का उपदेश देता और कितनों को कच्छुयों के मांसों का, कितनों को पाहों के मांसों का, कितनों को मकरों के मांसों का, कितनों को सुसुमारों के मांसों का और कितनों को अजमांसों का उपदेश करता । इसी प्रकार भेडों, गवयों, शकरों, मृगों, शशकों, गौओं और महिषों के मांसों का उपदेश करता। कितनों को तित्तरों के मांसों का तथा बटेरों, लावकों, कपोतों, कुक्कुटों और मयूरों के मांसों का उपदेश देता । इसी भान्ति अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर, और खेचर आदि जीवों के मांसों का उपदेश करता और स्वयं भी वह धन्वन्तरि वैद्य उन अनेकविध मत्स्यमांसों यावत् For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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