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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राकथन हिन्दीभाषाटीकासहित (३१) जीवों को आतपनामकर्म का उदय नहीं होता । यद्यपि अग्निकायों के जीवों का शरीर भी उष्ण प्रकाश करता है परन्तु वह आतपनामकर्म के उदय से नहीं किन्तु उष्णस्पर्शनामकर्म के उदय से है और लोहितवर्णनामकर्म के उदय से प्रकाश करता है। ७६-उद्योतनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर शीतल प्रकाश फैलाता है । लब्धिधारी मुनि जब वैक्रियशरीर धारण करते हैं तब उन के शरीर में से, देव जब अपने मूल शरीर की अपेक्षा उत्तरवैक्रिय शरीर धारण करते हैं तब उस शरीर में से, चन्द्रमण्डल, नक्षत्रमण्डल और तारामण्डल के पृथिवीकायिक जीवों के शरीर में से, जुगुनू, रत्न और प्रकाश वाली औषधियों से जो प्रकाश निकलता है, वह उद्योतनामकम के कारण होता है । ८०-अगुरुलघुनामकम-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर न भारी होता है और न हलका, अर्थात् इस कर्म के प्रभाव से जीवों का शरीर इतना भारी नहीं होता कि जिसे संभालना कठिन हो जाये और इतना हलका भी नहीं होता कि हवा में उड़ जाये। ८१-तीर्थकरनामकम-इस कर्म के उदय से तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है। ८२-निर्माणनामकम-इस कर्म के उदय से अंगोपांग शरीर में अपनी जगह व्यवस्थित होते हैं। इसे चित्रकार की उपमा दी गई है। जैसे चित्रकार हाथ, पैर आदि अवयवों को यथोचित स्थान पर बना देता है, उसी प्रकार निर्माणनामकर्म का काम अवयवों को उचित स्थान में व्यवस्थित करना होता है। ८३-उपघातनामकम-इस कर्म के उदय से जीव अपने ही अवयवों-प्रतिजिह्वा (पड़जीभ) चौरदन्त (अोठ से बाहिर निस्सृत दांत), रसौली, छटी अंगुली आदि से क्लेश पाता है। ८४-सनामक इस कर्म के उदय से जीव को त्रसकाय द्वीन्द्रिय आदि की प्राप्ति होती है। ८५_बादरनामकम-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर बादर होता है। नेत्रादि के द्वारा जिस की अभिव्यक्ति हो सके वह बादर-स्थूल कहलाता है । ८६-पर्याप्तनामकम-इस कर्म के उदय से जीव अपनी २ पर्याप्तियों से युक्त होते हैं। पर्याप्ति का अर्थ है- जिस शक्ति के द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उन्हें आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में बदल देने का काम होता है । ८७-प्रत्येकनामकम-इस कर्म के उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी बनता है । जैसे—मनुष्य, पशु, पक्षी तथा अाम्रादि फलों के एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है। ८८ स्थिरनामकर्म-इस कर्म के उदय से दान्त, हड्डी, प्रीवा आदि शरीर के अवयव स्थिर अर्थात् निश्चल होते हैं। ८६-शुभनामकर्म इस कर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं। हाथ, सिर अादि शरीर के अवयवों के स्पर्श होने पर किसी को अप्रीति नहीं होती । जैसे-कि पांव के स्पशे से होती For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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