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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३०) श्री विपाकसूत्र [प्राकथन ७०-देवानपूर्वीनामकम-इस कर्म के उदय से *समणि से गमन करने वाला जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान देवगति को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि सीधे जाते हुए बैलों को जैसे नाथ के द्वारा घुमा कर दूसरे मार्ग पर चलाया जाता है, उसी तरह यह कर्म भी स्वभावतः समश्रेणि पर चलते हुए जीव को घुमा कर विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान देवगति को प्राप्त करा देता है। ७१-मनुष्यानपूर्वीनामकम-इस कर्म के प्रभाव से समणि से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान मनुष्यगति को प्राप्त करता है। ७२--तिर्यञ्चानुपूर्वीनामकर्म-इस कर्म के प्रभाव से समश्रेणी से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान तिर्यञ्चगति को प्राप्त करता है। ७३-नरकानपूर्वीनामकम--इस कर्म के प्रभाव से समणि से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान नरकगति को प्राप्त करता है। ७४-शुभविहायोगतिनामकम--इस कर्म के उदय से जीव की चाल शुभ होती है जैसे कि- हाथी, बैल, हंस आदि की चाल शुभ होती है । ७५-अशुभविहायोगतिनामक इस कर्म के उदय से जीव की चाल अशुभ होती है । जैसे कि ऊंट, गधा आदि की चाल अशुभ होती है । ७६ पराघातनामकम-इस कर्म के उदय से जीव बड़े २ बलवानों की दृष्टि में भी अजेय समझा जाता है । अर्थात् जिस जीव को इस कर्म का उदय होता है वह इतना प्रबल मालूम देता है कि बड़े २ बली भी उस का लोहा मानते हैं । राजाओं की सभा में उस के दर्शन मात्र से अथवा केवल वाकौशल से बलवान् विरोधियों के भी छक्के छूट जाते हैं। ७७-उच्छवासनामकम-इस कर्म के उदय से जीव श्वासोच्छवासलब्धि से युक्त होता है । शरीर से बाहिर की हवा को नासिका द्वारा अन्दर खींचना श्वास है और शरीर के अन्दर की हवा को नासिका द्वारा बाहिर छोड़ना उच्छवास कहलाता है । ७८-आतपनामक इस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वयं उष्ण न हो कर भी उष्ण प्रकाश करता है । सूर्यमण्डल के बाहिर एकेन्द्रियकाय जीवों का शरीर ठण्डा होता है, परन्तु श्रातपनामकर्म के उदय से वह उष्ण प्रकाश करता है । सूर्यमण्डल के एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर अन्य *जीव की स्वाभाविक गति श्रेणि के अनुसार होती है। आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणि कहते हैं । एक शरीर को छोड़ दूसरा शरीर धारण करने के लिये जीव जब समणि से अपने उत्पत्तिस्थान के प्रति जाने लगता है तब आनुपूर्वीनामकर्म उस को विश्रेणिपतित उत्पत्तिस्थान पर पहुंचा देता है । जीव का उत्पत्तिस्थान यदि समणि में हो तो आनुपूर्वीनामकर्म का उदय नहीं होता अर्थात् वक्रगति में आनुपूर्वी नामकर्म का उदय होता है, ऋजु गति में नहीं । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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