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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३५६] श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अध्याय न कहीं किसी से टकराना पड़ जाता है। अतः वह पूर्णतया निरपेक्ष स्वात्मपरित रूप अखण्ड अहिंसा आदि व्रतों का पालन नहीं कर सकता । तथापि गृहस्थ इन्द्रियों का गुलाम नहीं होता, उन्हें वश में रखने में प्रयत्नशील रहता है । स्त्री के मोह में वह अपना अनासक्त मार्ग नहीं भूलता । महारंभ और महापरिग्रह से दूर रहता है । भयंकर से भयंकर संकटों के आने पर भी अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होता । लोकरूढ़ि का सहारा ले कर वह भेडचाल नहीं अपनाता प्रत्युत सत्य के आलोक में अपने हिताहित का निरीक्षण करता रहता है । श्रेष्ठ एवं निर्दोष धर्माचरण की साधना में किसी प्रकार को भी लज्जा एवं हिचकिचाहट नहीं करता । अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह कभी नहीं करता । परिवार आदि का पालन पोषण करता हुश्रा भी अन्तर हृदय से अपने को अलग रखता है। पानी में कमल बन कर रहता है । अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति में कर्तव्य को नहीं भूलने पाता । विवेक उसके जीवन का संगी होता है । उसके बिना जीवन के पथ पर वह एक पग भी आगे नहीं सरकता । ऐसा गृहस्थ अपने वर्तमान को जहां सुखद तथा सफल बनाता है, वहां अपने भविष्य को भी उज्ज्वल समुज्ज्वल एवं अत्युज्ज्वल बना डालता है । विवेकी जीवन पाप का बन्ध नहीं करता, जब कि अविवेकी पाप के बोझ से व्याकुल हो उठता है। इसी लिए शास्त्रकारों ने विवेक को अपनाने पर और अविवेक के छोडने पर जोर दिया है । विवेकपूर्ण प्रवृत्तियें पापबन्ध का कारण नहीं होती, यह एक उदाहरण से समझिये एक डाक्टर किसी रोगी का अपरेशन (Operation ) करता है । रोगी रोता है, चिल्लाता है, पर डाक्टर अपना काम किये जाता है । वह स्वास्थ्यसंवर्धन के विचारों से उस के व्रणों में से पीव निकालता हुआ उसके रोने पर तनिक ध्यान नहीं देता । ऐसी स्थिति में वह अपना कर्तव्य निभाने का पुण्योत्पादक स्तुत्य प्रयास कर रहा है। इसके विपरीत जो डाक्टर लोभ के कारण या किसी द्वषादि के कारण रोगी के रोग का उपशमन नहीं करता या उसे बढ़ाने का प्रयास करता है तो वह पाप का बन्ध करता है । इन्हीं सदसद् प्रवृत्तियों के कारण मनुष्य विवेकी और अविवेकी बन कर पुण्य और पाप का बन्ध कर लेता है । एक और उदाहरण लीजिये-कल्पना करो कि एक व्यक्ति को थानेदार बना दिया गया, थानेदार बन जाने के अनन्तर उस व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह चोर डाकू आदि को पकड़ कर उसे उसके अपराध का दण्ड दिलावे । परन्तु यदि किसी प्रकार के लालच में आकर उसे छोड़ दे या उसके अपराध की अपेक्षा उसे अधिक दण्ड दिलाये तो वह अपने कर्तव्य का पालन या अधिकार का उचित उपयोग नहीं करता । उस का यह व्यवहार अवश्य निन्दनीय, अवांछनीय एवं विवेकशून्य है, और इस आचरण से वह अवश्य ही पाप कर्म का बन्ध करेगा । तात्पर्य यह है कि लोभादि के किसी भी कारण से अपने कर्तव्य को भुला कर अन्याय में रत रहने से मनुष्य पाप कर्म का बन्ध करता है । दुर्योधन कारागृहरक्षक-जेलर के जीवन में इसी प्रमादजन्य अविवेक की अधिक मात्रा दिखाई देती है । अपराधियों को दण्ड देने के लिए उसने जिस साधन-सामग्री को अपने पास संचित कर रक्खा है, उस को देखते हुए प्रतीत होता है कि अपराधियों को दण्ड देने में उस के परिणाम अत्यन्त कठोर और अमर्यादित रहते थे, तथा महाराज सिंहस्थ के राज्य में जो For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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